मीरा चरित भाग 87 से भाग 92 तक
|| श्रीकृष्ण ||
|| मीरा चरित ||
(87)
क्रमशः से आगे ...........
🌿 मीरा की अपने प्रियतम के देश .........अपने देश पहुँचने की सोयी हुई लालसा मानों ह्रदय का बाँध तोड़कर गगन छूने लगी। ज्यों ज्यों वृन्दावन निकट आता जाता था ,मीरा के ह्रदय का आवेग अदम्य होता जाता। कठिन प्रयास से वे स्वयं को थाम रही थी।उसके बड़े बड़े नेत्र आसपास के वनों में अपने प्राणआराध्य की खोज़ में इधरउधर चंचलता से परिक्रमा सी करने लगते। मानों वहीं कहीं श्यामसुन्दर वंशीवादन करते हुये किसी वृक्ष के नीचे खड़े दिख जायेंगे।
🌿 मीरा बार बार पालकी , रथ रूकवाकर बिना पदत्राण ( खड़ाऊँ ) पहने पैदल चलने लगती। बड़ी कठिनाई से चम्पा , चमेली केसर आदि उन्हें समझा कर मनुहार कर के यह भय दिखा पाती कि अभ्यास न होने से वह धीरे चल रही है और अन्तःत साथ में चल रहे सब यात्रियों को असुविधा होती है। इसके बाद भी मीरा पैदल चलने से विरत नहीं हो रही थी। उनके पद छिल गये थे , उनमें छाले उभरकर फूट गये थे , किन्तु वह इन सब कष्टों से बेखबर थी। दासियों , सेवकों की आँखें भर आती। मीरा हँसकर उन सभी को अपनी सौगन्ध दे रथ पर याँ गाड़ी पर बैठा देती।
🌿मीरा भजन गाती ,करताल बजाती चल रही है, किन्तु दासियों को केवल वह रक्त छाप दिखाई देती है,और उसके प्रत्येक पद पर उनके ह्रदय कराह उठते। जब उनकी यह पीड़ा असहनीय हो गयी तो चम्पा रथसे कूद पड़ी और स्वामिनी के चरणों से लिपट गयी।
''मुझसे जो भी अपराध हुए हों बाईसा हुकम ! इतनी कठिन सज़ा मत दीजिये कि अभागिनी चम्पा सह न सके। हम पर दया करें स्वामिनी ...दया करें .........वह अचेत सी हो स्वामिनी के चरणों में लुढक गयी ।"
"क्या हुआ तुझे ?" कहती हुई मीरा नीचे बैठ गयीं। चम्पा को गोदमें भरकर उसके आंसू पोंछती बोली।
" अपने पदतल तो देखिए बाईसा हुकम !" चमेली ने जैसे ही मीरा के पाँव को छुआ मीरा की दर्द से हल्की सी कराह निकल गई।
''में तो ठीक हूँ पगली तुम क्यों घबरायीं? यदि कुछ हुआ भी तो सार्थक हुआ ये मांस पिंड , प्रभु के धाम की तरफ़ चलने से ।हानि क्या हुई भला?''
" हानि तो हमारी हुई है हुकम! हम अभागिनियों को , जो सदा सेवा की अभ्यासी हैं उनको तो सवारी पर चढ़ने की आज्ञा हुईं और हमारी सुमन सुकुमारी स्वामिनी पांवोंसे चलें , हम उनके घावोंसे रक्त बहता देखें और सवारी का सुख लें,इससे बड़ा दण्ड तो यमराज की शासन पुस्तिका में भी नहीं होगा" चम्पा के इस कथन के साथ ही सभी बरबस हो ज़ोर से रो पड़ी।
🌿जो यात्री यह दृश्य देख रहे थे , वे भी अपने आँसू रोक नहीं सके। रात होने पर , पड़ाव के खेमें में , जब चमेली मीरा के घायल तलवों पर औषध लेप लगाने लगी , तब भी मीरा का एक ही आग्रह था ," जा ! अरे , यह सब छोड़ ! जा , ज़रा किसी यात्री से पूछकर तो आ कि वृन्दावन अब कितनी दूर रह गया है ?" वृन्दावन समीप जानकर एकदम से चलने को उद्यत हो उठती। जो यात्री पहले वृन्दावन गये थे ,उन्हें बुलवाकर दूरी पूछती , वहाँ के घाट ,वन और कुन्जों का विवरण पूछती , यमुना, गोवर्धन और मन्दिरों का हाल पूछती , वहाँ की महिमा कभी स्वयं बखान करती और कभी दूसरों के मुख से सुनती।
🌿सुबह , जब सब यात्रियों की टोली चली तो मीरा के पाँव मन की गति पा उड़ने से लगे। उसका पुलकित ह्रदय शब्दों में आनन्द उड़ेलने लगा ...............
🌿चलो मन गंगा -जमना तीर ॥
गंगा जमना ,निरमल पाणी सीतल होत सरीर।
बंसी बजावत गावत कान्हो संग लियाँ बलबीर॥
मोर मुकुट पीतांबर सोहै कुण्डल झलकत हीर।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कँवल पर सीर॥
🌿कहीं एक साथ नदी ,पर्वत और वन देखती तो मीरा को वृन्दावन की स्फुरणा हो आती। वह गाती - नृत्य करती और प्रणिपात ( प्रणाम ) करने लग जाती। दासियाँ पद -पद पर मीरा की संभाल करती। बहुत कठिनाई से समझा पाती - " बाईसा! अभी वृन्दावन थोड़ी दूर है.......!!!
क्रमशः ..............
|| मीरा चरित ||
(88)
क्रमशः से आगे ..........
🌿 ब्रज की सीमा पर पहुँच कर यात्रा रोक देनी पड़ी ।मीरा धरा पर लोट ही गई। अपना घर.......अपना देस देखते ही उसके संयम के बाँध टूट गये। विवेक तो जैसे प्रेम से प्रताड़ित होकर कहीं जा दुबका। आँखों से बहती गंगा - यमुना ब्रजभूमि का अभिषेक करने लगी। सारी देह धूलि धूसरित हो उठी।थोड़ी देर तक मीरा को दासियों ने कठिनाई से सम्भाला । सन्धया होते होते सबने वृन्दावन में प्रवेश किया। मीरा और उसके दास दासियाँ यात्री दल से यहाँ से पृथक हो गये और वृन्दावन में प्रथम रात्रि वास उन्होंने श्री श्यामसुन्दर की लीला स्थली ब्रह्म कुण्ड पर किया।
🌿 ब्रह्म कुण्ड पर वह रात्रि पर्यन्त निरन्तर अस्पष्ट कण्ठ से अपने प्राणप्रियतम को पुकारती , निहोरा करने लगी। बहुत प्रयत्न करने पर भी वह प्रकृतिस्थ नहीं हुईं। किसी प्रकार भी उन्हें दो कौर अन्न और दो घूँट पानी नहीं पिलाया जा सका। अपनी प्रेम दीवानी स्वामिनी को घेरकर दासियाँ सारी रात संकीर्तन करती रही।
🌿 चम्पा ने किसी को डाँटकर तो किसी को प्यार से भोजन करने को समझाया - "चाहे मन हो याँ न हो पर स्वयं को सेवा के लिये स्वस्थ रखने के लिए हमें इस देह को पुष्ट रखना है। अन्यथा हमारा सेवक धर्म कलंकित होगा। "
🌿प्रातः होते ही मीरा ने यमुना - स्नान की रट लगा ली। यमुना अभी दूर है , कहकर उन्हें पालकी पर चढ़ाया गया। चम्पा साथ बैठी। लेकिन मीरा के ह्रदय में इतनी त्वरा थी कि बैठे रहना उसे सुहा नहीं रहा था। वह ज़िद कर फिर उतर पड़ी -" कि निज घर में भी कोई पालकी में सवार होता है भला ? ब्रजरज का तो जितना हम स्पर्श पाये उतना ही हमारा सौभाग्य है। "
🌿वृन्दावन धाम !!! यह तो है ही प्रेम - परवश प्राणों का आधार , उनके ह्रदय सर्वस्व की लीलास्थली , रसिकों का निवास - स्थल। दूर दूर से प्यासे प्राण इस लीलाधाम को ताकते हुये चले आते है। बड़े बड़े राजाओं के मुकुट यहाँ धूल में लोटते नज़र आते है। महान दिग्विजयी विद्वान रजस्नान करके वृक्षों से लिपटकर आँसू बहाते हुये दिखते है। कहीं नेत्र मूँदे हुये आँसू बहाते , प्रकम्पित पुलकित देह, किसी घाट पर याँ किसी वृक्ष की छाया में, याँ किसी एकान्त कुटिया में प्रेमी जन लीला दर्शन सुख में निमग्न है ।जिस वृन्दावन की महिमा महात्मय के वर्णन में स्वयं ब्रजराजकिशोर अपने को असमर्थ पाते है , उसे मैं मूढ़ शुष्क ह्रदय कैसे कहूँ ?
🌿 सेवाकुन्ज के पीछे की गली में एक घर लेकर दो सेवकों और तीन दासियों के साथ मीरा रहने लगी। यद्यपि वह प्रारम्भ से ही नहीं चाहती थी कि वृन्दावन यात्रा में कोई भी उसके साथ आये , पर जिन्होंने अपनी ज़िंदगी की डोर उसके चरणों में उलझा दी थी , उन्हें वह कैसे पीछे छोड़ आती ?
🌿 वृन्दावन में मीरा का मन पहले से ही रमा हुआ था। फिर भक्ति में स्वछन्दता , किसी भी तरह की व्यवहारिकता से परे का वातावरण ,कोई बन्दिश नहीं मानों मीरा की प्रेम भक्ति को उड़ने के लिये विस्तृत आकाश मिल गया हो। उसे वृन्दावन में हुई ठाकुर जी की लीलाओं की स्मृति अनायास ही हो आती - कभी ठाकुर की गोपियों से छेड़छाड़ की लीला तो कभी माधुर्य भाव की लीला ।वह उन भावों को संगीत में स्वभाविक ही बाँध देती...........
🌿 या ब्रज में कछु देख्यो री टोना ॥
ले मटकी सिर चली गुजरिया ।
आगे मिले बाबा नन्द जी के छोना॥
दधि को नाम बिसरि गयो प्यारी।
"ले लेहु री कोउ स्याम सलोना ॥
बिंद्राबन की कुंज गलिन में।
आँख लगाय गयो मनमोहना ॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर।
सुन्दर स्याम सुघर रस लोना ॥ 🌿
क्रमशः ............
|| मीरा चरित ||
(89)
क्रमशः से आगे .............
🌿 मीरा का आवास स्थान सेवाकुन्ज के समीप ही गली में ही था।सेवाकुन्ज तो स्वयं सिद्ध पीठ है मानो तो जैसे वृन्दावन का ह्रदय , प्रियालाल जी की नित्य रास स्थली। फिर पास में श्री यमुना महारानी जो प्रियालाल जी की नित्य रसकेलि की चिर साक्षी है। चारों तरफ़ मन्दिर ,सत्संग - मीरा का उत्साह तो पल पल में उफ़ान ले रहा था। वह किसी दूसरे ही जगत में थी। वृन्दावन वास के दिवा निशि भी इस जगत के कहाँ थे ? मीरा को कुछ खाने पीने की भी सुध कहाँ थी ? पर हाँ ....उसकी आत्मा अवश्य पुष्ट हो रही थी।
🌿 मीरा की ऐसी स्थिति में अन्दर बाहर का सारा कार्य दासियाँ ही संभाल रही थी। चमेली बाई अपने पति शंकर और केसर बाई अपने पति केशव को साथ लेकर वृन्दावन के लिए प्रस्थान करते समय मीरा के पीछे चल दी थी। चमेली के कोई सन्तान नहीं थी और केसर ने अपना एकमात्र पुत्र गोमती को सौंपा। जब केसरबाई स्वामिनी के पीछेपीछे चली तो केशव भी चला आया। मीरा ने जब केसर के पुत्र गोविन्द को माँ के लिए रोते देखा तो केसर से लौट जाने को बहुत आग्रह किया। पर केसर ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया - " माँ बाप ने सरकार के विवाह के समय मुझे इन चरणों में सौंपा था। सेवा में पटु न होने पर भी ऐसा क्या महान अपराध बन पड़ा हुकम कि इस दासी को आप अनाथ कर रही है ? बस एक अनुरोध है , वृन्दावन में आप जहाँ भी रहेंगी - मैं आपके दूर से ही दर्शन कर लिया करूँगी। बस , इतनी नियामत बख्शें आप इस किंकरी को !"
चमेली ने भी कहा ," वहाँ तो सब सीधे सीधे मिलेगा नहीं। चम्पा श्री चरणों की सेवा करेगी , तो मैं और केसर लकड़ी लाना , आटा पीसना , कपड़े धोना , बर्तन मांजना बुहारी लगाना आदि कार्य संभाल लेंगी। इतना जीवन आपकी सेवा में बीता है तो बाकी का क्यों अभिशाप बनें ?" मीरा दोनों की सेवाभावना से निरूत्तर हो गई ।
चम्पा ने विवाह किया ही नहीं था। वह मीरा की दासी ही नहीं , अंतरंग सखी भी थी , उसके भावों की वाहिका , अनुगामिनी ,अनुचरी ।कभीकभी जब अंतरंग भावों की चर्चा होती तो उसके भावों की उत्कृष्टता देखकर मीरा चकित हो उठती। चम्पा से मीरा को स्वयं चिन्तन में सहायता मिलती। वे पूछती ," चम्पा ! कहाँ से पा गई तू यह रत्नकोष ?"
वह हँसती - " सब कुछ इन्हीं चरणों से पाया है सरकार ! और किसी को तो जानती नहीं मैं !!"
🌿 कथा , सत्संग , मन्दिरों के दर्शन , भजन , कीर्तन नृत्य आदि का उल्लास और उत्साह ऐसा था कि मानों परमानन्द सागर में डुबकी - पर -डुबकी लग रही हो। मीरा की भजन ख्याति वृन्दावन में फैलने लगी थी। जिसने भी सुना , वही दौड़ा दौड़ा आता। आकर कोई तो प्रणाम करता और कोई आशीर्वाद देता। ब्रज के संतों से विचार - विनिमय और भाव चर्चा करके मीरा तीव्रतापूर्वक साधन - सोपानों पर चढ़ने लगी। यद्यपि मीरा स्वयं सिद्धा संत थी , पर यहाँ इस पथ में भला इति कहाँ है ?
🌿 मीरा का मन पूर्णतः वृन्दावन में रच बस गया था। उसे कभी स्मरण भी नहीं होता कि वह प्रारम्भ से यहाँ नहीं थी। उसे वृन्दावन भा गया था और वहाँ की सात्विकता और घर घर में सहज़ और स्वभाविक भक्ति देख उसका मन उल्लास से गा उठता..........
🌿 आली म्हाँने लागे वृन्दावन नीको ।
घर घर तुलसी ठाकुर पूजा दरसण गोविन्दजी को ॥
निरमल नीर बहे जमुना को भोजन दूध दही को।
रतन सिंघासण आप विराज्या मुकट धर्यो तुलसी को॥
कुंजन कुंजन फिरूँ साँवरा सबद सुणत मुरली को।
मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर भजन बिना नर फीको॥
क्रमशः ................
|| मीरा चरित ||
(90)
क्रमशः से आगे ............
🌿 एक दिन किसी से पूज्य श्री जीव गोस्वामी पाद का नाम , उनकी गरिमा ,उनकी प्रतिष्ठा सुनकर मीरा उनके दर्शन के लिए पधारी। सेवक के द्वारा उनकी भजन कुटीर में सूचना भेजकर वे बाहर बैठकर प्रतीक्षा करने लगी। सेवक ने कुटिया से बाहर आकर कहा ," गोस्वामी पाद किसी स्त्री का दर्शन नहीं करते। "
🌿 मीरा हँस कर खड़ी होते हुये बोली ," धन्य हैं श्री गोस्वामी पाद ! मेरा शत शत प्रणाम निवेदन करके उनसे अर्ज़ करें कि मुझ अज्ञ दासी से भूल हो गई जो दर्शन के लिए विनती की। मैंने अब तक यही सुना था कि वृन्दावन में पुरूष तो एकमात्र रसिकशेखर ब्रजेन्द्रनन्दन श्री कृष्ण ही हैं। अन्य तो जीव मात्र प्रकृति स्वरूप नारी है ।आज मेरी भूल को सुधार करके उन्होंने बड़ी कृपा की। ज्ञात हो गया कि वृन्दावन में कोई दूसरा पुरुष भी है !!!" अंतिम वाक्य कहते कहते मीरा ने पीठ फेरकर चलने का उपक्रम किया ।
🌿मीरा द्वारा सेवक को कही गई बात भजन कुटीर में बैठे श्री जीव गोस्वामी जी ने सुनी। " कृप्या क्षमा करें मातः !" ऐसा कहते हुए गोस्वामी पाद स्वयं कुटिया से बाहर आये और मीरा के चरणों में प्रणाम किया।
" आप उठे आचार्य ! " वे इकतारा एक ओर रखकर हाथ जोड़ते हुये झुकी - " मैंने तो कोई नई बात नहीं कही प्रभु ! यह तो सर्वविदित सत्य है कि वृन्दावन में पुरुष केवल एक ही है - ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ! और हम सब साधक तो गोपी स्वरूप हैं ! - बस ऐसा ही संतों के मुख से सुना है। "
" सत्य है , सत्य है ! पर सत्य और सर्वविदित होने पर भी जब तक हम किसी बात को व्यवहार में नहीं उतारते , जानकारी अधूरी रहती है माँ ! और अधूरा ज्ञान अज्ञान से बढ़कर दुखदायी होता है " उन्होंने दोनों हाथों से कुटिया की ओर संकेत करते हुये विनम्र स्वर में कहा - "पधार कर दास को कृतार्थ करें। "
" ऐसी बात न फरमायें श्री गोस्वामी पाद ! आप तो ब्राह्मण कुल-भूषण ही नहीं , श्री चैतन्य महाप्रभु के लाड़ले परिकर हैं ।मेरी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न देह आपकी चरण - रज स्पर्श की अधिकारी है" कहते हुये मीरा ने झुककर श्री जीव गोस्वामी पाद के चरणों के समीप श्रद्धा से मस्तक रखा। श्री पाद " ना-ना" ही कहते रह गये।
" अब कृपा करके पधारे। " श्री पाद ने अनुरोध किया।
" आगे आप , गुरूजनों के पीछे चलना ही उचित है " मीरा ने मुस्कराते हुये कहा।
" मैं तो बालक हूँ। पुत्र तो सदा माँ के आँचल से लगा पीछेपीछे ही चलता है " अतिशय विनम्रता से श्री पाद बोले।
🌿 इस समय तक कई संत महानुभाव एकत्रित हो गये थे। वे दोनों का विनय - प्रेम - पूर्ण अनुरोध और आग्रह देखकर गदगद हो गये। एक वृद्ध संत के सुझाव पर कुटिया के बाहर चबूतरे पर सब बैठ गये। सबने मीरा से आरम्भ करने का आग्रह किया।
🌿 मीरा ने श्री जीव गोस्वामी पाद के इष्ट श्री गौरांग महाप्रभु के सन्यास स्वरूप और अपने इष्ट श्रीकृष्ण के स्वरूप का समन्वय बैठाते हुये स्वभाविक ही एक ऐसे पद का गान कर दिया , जिसका श्रवण कर सब भक्तजनों के प्राण झंकृत हो उठे। इस गान में जहाँ चैतन्य महाप्रभु की जीवमात्र के उद्धार के लिये उनकी करूणा थी वहीं श्रीकृष्ण की वृन्दावन लीला का अति भावपूर्ण चित्रण था। आश्चर्य की बात तो यह थी कि मीरा ने पद गाया तो स्वभावतः ही , पर एक एक पंक्ति में दोनों लीलाओं का -गौरलीला और श्रीकृष्ण लीला का अद्भुत समिश्रण भी था और दोनों लीलाओं के प्रधान गुण - गौरलीला के विरह ,करूणा और श्रीकृष्ण लीला की रसिकता भी ।
🌿 अब तो हरि नाम लौ लागी ।
सब जग को यह माखन चोरा नाम धर्यो बैरागी ॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली कित छोड़ी वह गोपी।
मूँड़ मुँड़ाई डोरी कटि बाँधे माथे मोहन टोपी॥
मात जसोमति माखन कारन बाँधै जाके पाँव।
स्यामकिसोर भये नव गौरा चैतन्य जाको नाँव॥
पीताम्बर को भाव दिखावै कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरा रसना कृष्ण बसै॥
🌿 सब बैठे हुये भक्त जनों में से कोई ऐसा न था जो श्री गौरांग महाप्रभु की जीवमात्र के उद्धार के लिए करूणा अनुभव कर आँसुओं से अभिषिक्त न हुआ हो। " धन्य हो ! साधु ! अद्भुत ! वाह ! " सब संत जनों ने प्रशंसा करते हुये अनुमोदन किया। मीरा ने विनम्रता से सबको प्रणाम किया और श्री जीव गोस्वामी पाद से श्री चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांत और प्रेम भक्ति के विषय में कुछ सुनाने का आग्रह किया। श्री पाद के साथ अन्य संतों ने भी चर्चा में भाग लिया। एक भक्ति पूर्ण गोष्ठी हो गई । श्री पाद मीरा के विचारों की विशदता , भक्ति की अनन्यता और प्रेम की प्रगाढ़ता से बहुत प्रभावित हुये। पुनः पधारने के आग्रह के साथ कुछ दूर तक मीरा को पहुँचा कर उन्हें विदाई दी ।
क्रमशः ............
|| मीरा चरित ||
(91)
क्रमशः से आगे ............
🌿 एक रात्रि मीरा की नींद अचानक से उचट गई। उन्हें लगा कि जैसे कोई खटका सा हुआ है ।मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छत से बने इस साधारण से कक्ष में भूमि पर ही मीरा के सोने का बिछौना था। पैरों की ओर तीनों दासियाँ सोयी हुईं थी। दोनों सेवक आगे वाले दूसरे कक्ष में थे। अंधेरे से अभ्यसत हो जाने में आँखों को दो क्षण लगे।
🌿 मीरा ने देखा कि चम्पा अपनी शय्या से उठ खड़ी हुई है , किन्तु क्या यह वही उनकी प्रिय दासी और सखी चम्पा है ? हाँ और नहीं भी ।वृन्दावन आते समय उनके स्वयं की और दासियों की देह पर एक भी अलंकार नहीं था। सबके वस्त्र सादे और साधारण किस्म के थे, किन्तु इस समय तो चम्पा दिव्य रत्न जड़ित वस्त्र आभूषणों से अलंकृत खड़ी थी। वैसे भी चम्पा गौरवर्णा थी , किन्तु इस समय उसका वर्ण स्वर्ण चम्पा के समान था। उसका गुजरिया के समान ऊँचा घेरदार घाघरा , कंचुकी और ओढ़नी , पैरों में मोटे घुँघरू के नूपुर गूँथे छड़े , हाथों में मोटे मोटे स्वर्ण कंगनों के बीच हीरक जटित चूड़ियाँ थी उसके मुख की शोभा के सम्मुख मीरा का अपना सौन्दर्य फीका लग रहा था ।उसके नेत्रों में कैसी सरलता .........!!!
🌿 मीरा ने देखा कि चम्पा उसकी ओर बढ़ी उसकी प्रथम पदक्षेप से नुपूरों की क्षीण मधुर झंकार ने ही उन्हें जगाया था। दो पद आगे बढ़कर वह नीचे झुकी और मीरा का हाथ थामकर बोली - " माधवी !!! उठ चल !!!"
🌿 मीरा चकित रह गई ।चम्पा सदा उन्हें आदरपूर्ण शब्दों से सम्बोधित करती रही है। यद्यपि मीरा उसे दासी से अधिक सखी मानती थीं , पर उसने अपने को दासी से अधिक कभी कुछ नहीं समझा ।वही चम्पा आज इस प्रकार बोल रही है और यह माधवी कौन है ? क्षण भर में ये सब विचार उसके मस्तिष्क में घूम गये।
🌿 चम्पा ने फिर उसे उठने का संकेत किया तो वह उठकर खड़ी हो गई ।मीरा ने कुछ कहना चाहा तो, चम्पा ने अपनी सुन्दर अंगूठी से विभूषित तर्जनी अंगुली को अपने अरूण अधरों पर धरकर चुप रहने का संकेत किया। ऐसा लगता था कि इस समय चम्पा स्वामिनी है और मीरा मात्र दासी। वे दोनों धीरेधीरे चलकर द्वार के समीप आई ।अपने आप रूद्ध द्वार - कपाट उदघाटित हो गये और वे दोनों बाहर आ गई।
🌿 मीरा ने देखा कि जिस वृन्दावन में वह रहती है , घूमती है , यह वैसा नहीं है। वृक्ष , लता ,पुष्प सब दिव्य है। पवन , धरा और गगन भी दिव्य है। इस सबकी उपमा कैसे दें ? क्योंकि यह सब इस जगत का नहीं ब्लकि सब दिव्य , आलौकिक है।हवा चलती है तो ऐसा लगता है कि जैसे कानों के समीप मानों चुपके चुपके कोई भगवन्नाम ले रहा हो। वृक्षों के पत्ते हिलते है तो मानों कीर्तन के शब्द मुखरित होते है। रात्रि होने पर भी भंवरे गुनगुना रहे है और वह गुनगुनाहट और कुछ नहीं भगवन्नाममयी ही है। तनिक ध्यान देने पर लगता है कि सम्पूर्ण प्रकृति श्री राधा-माधव-प्रेम-रस में निमग्न है ।
🌿 सघन वन पार कर के वे दोनों गिरिराज की तरहटी में पहुँची। गिरिराज की नाना रत्नमयी शिलाओं से प्रकाश विकीर्ण हो रहा था। तरहटी में कदम्ब वृक्षों से घिरा हुआ निकुञ्ज भवन दिखाई दिया। कैसा आश्चर्य ?? इस भवन की भीतियाँ ,वातायन ( खिड़कियाँ एवं रोशनदान ) आदि सब कुछ कमल,। मालती , चमेली और मोगरे के पुष्पों से निर्मित है गिरिराज जी का दर्शन करते ही मीरा को कुछ देखा देखा सा लगा ऐसा लगता था मानों उसकी स्मृति पर हल्का सा पतला पर्दा पड़ा हुआ है । अभी याद आया , अभी याद आया की ऊहापोह में वह चलती गई..........।
क्रमशः ..........
|| मीरा चरित ||
(92)
क्रमशः से आगे ..............
🌿 दिव्य वृन्दावन की एक दिव्य रात्रि में चम्पा और मीरा गिरिराज जी की तरहटी में पहुँची है। पुष्पों से निर्मित एक निकुञ्ज द्वार पर पहुँच मीरा को सब वातावरण पहले से ही पहचाना सा ही लग रहा है।
🌿 निकुञ्ज द्वार पर खड़ी एक रूपसी ने चम्पा को अतिशय स्नेह के साथ आलिंगन करते हुए पूछा ," अरे चम्पा ! आ गई तू ?"
" क्यों बहुत दिन हो गये न?" चम्पा ने भी उतने ही स्नेह से गले लगे हुये कहा।
" नहीं अधिक कहाँ ? अभी कल परसों ही तो गई थी तू ? यह कौन ? माधवी है न ?"
🌿 माधवी ? यह सब मुझे माधवी क्यों कहते है ? मीरा के अन्तर में एक क्षण के लिए यह विचार आया और फिर जैसे बुद्धि लुप्त हो गई हो।
" श्री किशोरीजू , श्री श्यामसुन्दर .................! चम्पा ने बात अधूरी छोड़ कर उसकी ओर देखा।
"आओ न। भीतर तुम दोनों की ही प्रतीक्षा हो रही है।मैं तो तुम्हारी अगवानी के लिए ही यहाँ खड़ी थी ।"
" चलो रूप ! कल और आज दो ही दिन में ऐसा लगता है कि मानों दो युग बीत गये हों ।पर बताओ कि प्रियालाल जी प्रसन्न तो हैं न ? " चम्पा रूप के साथ चलते हुये बोली।
" हाँ ! दोनों बहुत प्रसन्न है। किशोरीजू तो तुम्हारे त्याग और प्रेम की प्रशंसा करती रहती है ।"
" मेरी क्या प्रशंसा रूप !और क्या त्याग ? हमारे प्राणधन श्यामसुन्दर और प्राणेश्वरी श्री किशोरीजू जिसमें प्रसन्न रहे वही हमारा सर्वस्व है। "
इन्हें आते देख बहुत सी सखियाँ हँसती हुई उठ गई -" चलो ! भीतर किशोरीजू प्रतीक्षा कर रही है। "
🌿 अगले कक्ष में प्रवेश करते ही जैसे मीरा ,मीरा न रही ।प्रेम पीयूष से उसका ह्रदय यों ही सदा छलकता रहता था , पर आज इस क्षण तो जैसे उसका रोम रोम रस - सागर बन गया। सामने विराजित नीलघनद्युति मयूरमुकुटी श्यामसुन्दर और स्वर्ण चम्पकवर्णीया श्री किशोरीजू की दृष्टि उस पर पड़ने से वह आपा भूल गई। रूप और सौरभ की छटा का दर्शन हो वह मुग्ध सी हो अपना अस्तित्व खो बैठी। नेत्र उस घनश्याम वपु के सौन्दर्य -सिंधु की थाह पाने में असमर्थ - थकित होकर डोलना भूल गये। नासिका सौरभ सिन्धु में खो गई। और कर्ण ? तभी आकर्षण की सीमा पार कर वे दीर्घ नेत्र उसकी ओर हुये और कर्णो में मिठास घोलते हुये बोले - " माधवी ! तुझे माधवी कहूँ कि मीरा ?" वह कहते हुये हँसे ,और उनके शब्दों और हँसी की माधुरी चहुँ दिशा में फैल गई।
🌿 श्री किशोरीजू के संकेत पर चम्पा मीरा को लेकर उनके समीप गई। मीरा और चम्पा दोनों ने राशि राशि के उदगम उन चरणों पर सिर रखा। श्री राधारानी के सौन्दर्य ने तो मीरा की चेतना ही हर ली। जब नेत्र खुले तो प्रियाजी का करकमल उसके मस्तक पर था। मीरा के नेत्रों से आँसुओं की धारायें बह चलीं।
🌿 " सुन माधवी ! " अतिशय स्नेह से सिक्त सम्बोधन सुन मीरा ने आँसू से भरी आँखें उठाकर ठाकुर की तरफ़ देखा। " सुन माधवी ! अभी तेरी देह रहेगी कुछ समय तक संसार में " उन्होंने कहा ।
वह ऐसे चौंक पड़ी मानों जलते हुये अंगारों पर पैर पड़ गया हो ।उसने मौन पलकें उठाकर प्रभु की ओर देखा। जैसे पीड़ा का महासागर ही लहरा उठा हो मानों उस दृष्टि में ।मीरा ने रूदन स्वर में कहा ," मैं जन्म जन्म की अपराधिनी हूँ , पर आप करूणासागर हो ,दया निधान हो, मेरे अपराधों को नहीं , अपनी करूणा को ही देखकर अपनी माधवी को इन चरणों में पड़ी रहने दो ।जगत की मीरा को मर जाने दो। अब और विरह नहीं सहा जाता ........नहीं सहा जाता प्रभु। "
क्रमशः ...................
🙏🏼🌹 राधे राधे 🌹🙏🏼
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✍🏽 WhatsApp या Facebook पर मीरा चरित का यह जो प्रसंग आता है, भाग 1 से लेकर भाग 123 तक, यह संक्षेप में है। जो मुख्य रूप से पुस्तक से लेकर लिखा गया है। लेकिन पुस्तक में और विस्तार से लिखा हुआ है और भी बहुत सारे प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे, जो कि बहुत ही रोचक है, भावुक कर देने वाला प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे। इसलिए निवेदन है कि मीरा चरित पुस्तक जरूर पढ़ें। और यदि आप पुस्तक मंगवाना चाहते हैं तो आप इस पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।
श्री राधे...