मीरा चरित भाग 81 से भाग 86 तक
|| श्रीकृष्ण ||
|| मीरा चरित ||
(81)
क्रमशः से आगे ..............
मीरा और श्यामकुँवर दोनों गिरधर की सेवा में लगी थी - कि एक कुमकुम नाम की दासी बड़ी सी बाँस की छाब लेकर आई और बोली ," महाराणा जी ने आपके लिए शालिगराम जी और फूलों की माला भिजवाई है हुकम !"
" शालिगराम कौन लाया ? कोई पशुपतिनाथ याँ मुक्तिनाथ के दर्शन करके आया है क्या ?" मीरा ने अपने सदा के मीठे स्वर में पूछा।
" मुझे नहीं मालूम अन्नदाता ! मुझे जो हुकम हुआ , उसे पालन के लिए मैं हाज़िर हो गई ।वैसे भी बहुत समय से मेरे मन में आप हुज़ूर के दर्शन की लालसा थी ।आज महामाया ने पूरी की। मुझ गरीब पर मेहर रखावें सरकार ,हम तो बड़े लोगों का हुकम बजाने वाले छोटे लोग हैं सरकार !" कुमकुम ने भरे कण्ठ से कहा।
" ऐसा कोई विचार मत करो। हम सब ही चाकर है उस म्होटे धणी ( भगवान ) के। जिसकी चाकरी में है , उसमें कोई चूक न पड़ने दें , बस। हम सब का ठाकुर सबणे जाणे और सब देखे है ,उससे कुछ छिपा नहीं रहता " मीरा ने स्नेह से समझाते हुये कहा ," गोमती ! इन्हें प्रसाद दे तो ।"
फिर श्यामकुँवर की ओर देखती हुई मीरा बोली ," बेटी ! इस छाब की डोरियों को खोलो तो , तुम्हारे गिरधर के साथ इनकी भी पूजा कर लूँ। कोई लालजीसा के लिए पशुपतिनाथ याँ मुक्तिनाथ से शालिगराम भेंट में लाया होगा तो उन्होंने मेरी काम की चीज़ समझ कर यहाँ भेज दिए हैं ।"
जैसे ही श्यामकुँवर ने डोरी खोलने को हाथ बढ़ाया तो चम्पा बोल पड़ी " ठहरिये बाईसा ! इसे हाथ मत लगाईये। जिस तरह से यह दासी इसे ला रही थी - यह छाब भारी प्रतीत होती थी और शालिगराम तथा फूलों का भार ही कितना होता है ?"
तू तो पगली है चम्पा ! उधर से हवा भी आये तो तू वहम से भर जाती है । तुम खोलो बेटा !" मीरा ने श्यामकुँवर से कहा।
श्यामकुँवर खोलने लगी तो कुमकुम प्रसाद को ओढ़नी में बाँध आगे बढ़ आई ," सरकार ! बहुत मज़बूती से बँधी है। आपके हाथ छिल जायेंगे , लाईये मैं खोले देती हूँ। "
उसने डोरियों को खोल जैसे ही छाब का ढक्कन उठाया , फूत्कार करते हुये दो बड़े बड़े काले भुजंग चौड़े फण उठाकर खड़े हो गये। दासियों और श्यामकुँवर के मुख से चीख निकल पड़ी। कुमकुम की आँखें आश्चर्य से फट सी गई, और वह घबराकर अचेत हो गई। मीरा तो मुस्कराते हुये ऐसे देख रही थी मानों बालकों का खेल हो। देखते ही देखते एक साँप छाब में से निकलकर मीरा की गोद में होकर उसके गले में माला की भांति लटक गया।
" बड़ा हुकम !" श्यामकुँवर व्याकुल स्वर में चीख सी पड़ी।
" डरो मत बेटा ! मेरे साँवरे की लीला देखो ।"
पलक झपके , तब तक तो छाब में बैठा नाग एक बड़े शालिगराम के रूप में और मीरा के गले में लटका नाग रत्नहार के रूप में बदल गया।
" गोमती ! कुमकुम बाई को थोड़ा पंखा झल तो ! थोड़ा चरणामृत भी दे। बेचारी डर के मारे अचेत हो गई है " मीरा ने शांत स्वर में कहा।
चमेली क्षुब्ध स्वयं में बोली - " मरने भी दीजिए अभागी को जो आपके लिए सिर पर मौत उठाकर लायी। हमारा वहम तो झूठा नहीं निकला , किन्तु सरकार के भोलेपन के सामने वहम का क्या बस चले ?"
" ऐसी बात मत कह चमेली ! यह बेचारी कुछ जानती होती तो स्वयं आगे बढ़ कर छाब की डोरियाँ क्यूँ खोलती ? और यदि जानती भी होती तो अपना क्या बिगड़ गया ? ले ! ये चरणामृत दें तो इसके मुख में !"
अथाह स्नेहपूर्वक दोनों हाथों से छाब में फूलों के ऊपर रखे हुये शालिगराम जी को मीरा ने उठाया और एकबार सिर से लगाकर सिंहासन पर पधराते हुये वे बोली ," मेरे प्रभु ! कितनी करूणा है आपकी इस दासी पर !"
दासियों ने और श्यामकुँवर ने जयघोष किया -" शालिगराम भगवान की जय ! गिरधरलाल की जय !!!"
क्रमशः ..............
|| मीरा चरित ||
(82)
क्रमशः से आगे ..................
राणा विक्रमादित्य ने मीरा को बाँस की छाब में दो काले भुजंग भिजवाये और कहलवाया कि शालिगराम जी और फूल है। छाब का ढक्कन खोलते ही नाग निकले, लेकिन देखते ही देखते एक ने शालिगराम का स्वरूप ले लिया और एक ने रत्नों के हार का ।
जब दासी कुमकुम को चेत आया तो वह मीरा के चरणों में सिर रखकर रो पड़ी - " मैं कुछ नहीं जानती अन्नदाता ! मुझे तो महाराणा के सेवक ने यह छाब पकड़ाई और कहा कि शालिगराम जी और फूल है मैं आपके यहाँ पहुँचा दूँ। यदि मैं इस साज़िश के बारे में जानती होऊँ तो भगवान इसी समय मेरे प्राण हर लें" फिर एकाएक चौंक कर बोली ," वे कहाँ गये दोनों कालींगढ़ ? "
" ये रहे। " मीरा ने एक हाथ से शालिगराम जी को और दूसरे से गले में पड़े हार को छूते हुये बताया - " तुम डरो मत ! मेरे साँवरे समर्थ है। "
श्यामकुँवर बहुत क्रोधित हुई यह सब देखकर और बोली ," अभी जाकर काकोसा से पूछती हूँ कि यह सब क्या है ? अभी तक तो सुनते ही थे पर आज तो आँखों के समक्ष सब देख लिया। "
पर मीरा ने बेटी को शांत कर समझाया ," कुछ नहीं पूछना है और हमारे पास प्रमाण भी कहाँ है कि उन्होंने साँप भेजे ।फिर साँप है कहाँ ? ब्लकि गोमती , जा !जोशी जी को बुला ला ,बोलना शालिगराम प्रभु पधारे है। प्राणप्रतिष्ठा करनी है। और चम्पा ! प्रभु के आगमन पर उत्सव भोग की तैयारी करो , और सब महलों में प्रसाद भी बंटेगा। "
श्यामकुँवर तो यह सब देख सकते में आ गई - एक शरणागत का ,एक भक्त का किसी भी स्थिति को देखने का ,उस स्थिति को संभालने का ही नहीं ब्लकि उसे प्रभु की लीला मान उसे उत्सव का स्वरूप दे देना - कितना भावभीना दृष्टिकोण है !"
" और मेरे लिए क्या आज्ञा है हुकम ? "कुमकुम रो पड़ी - " जो यह प्रसाद मेरे पल्ले में न बँधा होता तो वे नाग मुझे अवश्य डस गये होते। अब वहाँ जाकर क्या अर्ज़ करूँ ?"
" केवल यही कहना कि छाब को मैं कुंवराणी के पास रख आई हूँ और अर्ज़ कर दिया है कि शालिगराम और फूलों के हार है। इच्छा हो तो उत्सव के पश्चात आकर तुम प्रसाद ले जाना। "मीरा ने कहा।
" न जाने किस जन्म के पाप का उदय हुआ कि ऐसे कार्य में निमित्त बनी। यदि आपको कुछ हो जाता अन्नदाता ! तो मुझे नरक में भी ठिकाना न मिलता। हुज़ूर आप तो पीहर पधार रही है....... मुझे भी कोई सेवा प्रदान कर देती !" दासी ने आँसू पौंछते हुये कहा।
" मेरी क्या सेवा ? सेवा तो ठाकुर जी की है। उनका जो नाम अच्छा लगे , उठते - बैठते काम करते हुये लेती रहो। जीभ को न तो खाली रहने दो और न फालतू बातों में उलझायो। यह कोई कठिन काम नहीं है , पर आदत नहीं होने से प्रारम्भ में कठिन लगेगा ।आदत बनने पर तो लोग घोड़े - ऊँट पर भी नींद ले लेते है। बस इतना ध्यान रखना कि नियम छूटे नहीं। "मीरा ने कहा।
" मुझे .......भी एक ......ठाकुर जी .......बख्शावें। म्हूँ लायक तो कोय न , पण हुज़र री दया दृष्टि सूँ तर जाऊँली। " कुमकुम ने संकोच से आँचल फैला कर कहा।
मीरा उसके भाव से प्रसन्न हो बोली ," बहुत भाग्यशाली हो जो ठाकुर जी की सेवा की इच्छा जगी। प्रसाद लेने आवोगी तो जोशीजी भगवान और नाम दोनों दे देंगे। इनके नाम में सारी मुसीबतों के फंद काटने की शक्ति है। यदि तुम नाम भगवान को पकड़े रहोगी तो आगे - से - आगे राह स्वयं सूझती जायेगी और वह स्वयं भी आकर तुम्हारे ह्रदय में ,नयनों में बस जायेंगे। "
" आज तो मेरा भाग्य खुल गया।" कहते हुये उसने अपने आँसुओं से मीरा के चरण पखार दिए ।
शालिगराम जी के पधारने का उत्सव हुआ। जब जोशी जी ने शालिगराम भगवान का पंचामृत अभिषेक हुआ तो श्यामकुँवर और दासियों ने जयघोष कर मीरा का उत्साह वर्द्धन किया। मीरा भगवान के स्वयं घर पधारने से प्रसन्न चित्त मुद्रा में पर अतिशय भावुक हो विनम्रता से शीश निवाया। और ह्रदय के समस्त भावों से प्रियतम का स्वागत करने में तन्मय हो गईं.........
🌿म्हाँरे घर आयो प्रियतम प्यारा ...........
क्रमशः ............
|| मीरा चरित ||
(83)
क्रमशः से आगे ...........
मीरा जी के महल में प्रभु शालिगराम जी के आगमन का उत्सव विधिवत सम्पन्न हुआ। पहले ठाकुर जी का शंखनाद के साथ अभिषेक ,भजन संकीर्तन , ब्रह्म भोज और फिर प्रसाद ।सबके महलों में प्रसाद बँटा ।
उदयकुँवर बाईसा को प्रसाद पाकर बहुत आश्चर्य हुआ तो वह स्वयं मीरा के यहाँ उत्सव का कारण पूछने चली आई। श्यामकुँवर और मीरा प्रसाद पाने बैठने ही लगे थे। तो मीरा ने दासी को कह उदयकुँवर बाईसा की भी थाली साथ ही लगवा ली।
" आज कैसा उत्सव है भाभी म्हाँरा ?" उदयकुँवर ने जिज्ञासा वश पूछा।
" आज शालिगराम प्रभु पधारे है बाईसा !" मीरा ने प्रसन्नता से कहा।
श्यामकुँवर ने प्रसाद पाते पाते सारा वृतान्त बुआ को कह सुनाया। उदयकुँवर सांप के पिटारे की बात सुनकर बहुत क्रोधित हुई , " मैं तों समझी थी कि महाराणा को अब अकल आ गई है। वे भाभीसा को अब पहचान गये है, किन्तु कुछ भी नहीं बदला है। मैं जाकर पूछती हूँ कि यह क्या किया आपने , क्या मेड़तियों को शत्रु बना कर मानेंगे ?"
नहीं बाईसा! कुछ नही किसी से भी पूछना है। भाई जयमल के पुत्र मुकुन्द दास भी अभी यहीं है। मेड़ता में ज़रा सा भी भनक पड़ गई तो दोनों तरफ़ की तलवारें भिड़ जायेगीं। मेरा तो कुछ बिगड़ेगा नहीं ,पर हमारी बेटी का पीहर खो जायेगा " मीरा ने श्यामकुँवर के सिर पर हाथ रखते हुये कहा, " और रही बात मेरी , वो तो वैसे भी परसों मैं जा ही रही हूँ। "
उदयकुँवर विह्वल स्वर में भौजाई से लिपटते हुये बोली ," आप समंदर हो भाभी म्हाँरा !"
तभी कुमकुम ठाकुर जी को लेने आ गई ।मीरा उसे और श्यामकुँवर को ले मन्दिर पधारी तो जोशीजी को उसकी इच्छा बताई। " तुमको कौन से ठाकुर जी अच्छे लगते है - रामजी , कृष्ण जी , एकलिंगनाथ , माता जी याँ कोई ओर ?" मीरा ने पूछा।
" मुझे अच्छे बुरे लगने की अकल कहाँ है सरकार ! "कुमकुम विनम्रता से बोली।
" भगवान से एक रिश्ता जोड़ना पड़ता है ,। इसलिए पूछ रही हूँ। तुम्हें बालक चाहिये कि बींद मालिक चाहिए कि चाकर , यह बताओ। "
" म्हारे तो नान्हा लाला चावे हुकम !"
मीरा ने बालमुकुन्द जी को उठाकर जोशीजी के हाथ में दिया। जोशीजी उसे कुमकुम के हाथ में देते हुये बोले , " तुमसे जैसी बन पाये , वैसी पूजा करना और छोटे बालक की तरह ही सार-संभाल करना। आज से ये तेरे लाला है। अपने बालक की तरह ही लाड़ - गुस्सा भी करना। इन्हें खिला कर ही खाना-पीना , इन पर पूरा भरोसा करना ।"
उसके कान में लाला का गोपाल नाम देते हुए कहा - " इस नाम को कभी नहीं भूलना मत , ज़ुबान को नाम से विश्राम मत देना, समझी ?"
कुमकुम ने आँसुओं से भरी आँखों से जोशीजी की ओर देखकर सिर हिलाया। पल्लू से चाँदी का एक रूपया खोलकर जोशीजी के पाँवों के पास रख प्रणाम किया। वहाँ बैठे सबको प्रणाम कर अन्त में उसने मीरा के दोनों चरण पकड़ रोते हुये कहा ," मैं पापिन आपके लिए मौत की सामग्री लेकर आई थी और आपने मेरे लिए वैकुण्ठ के दरवाज़े खोले ।बस इस दासी पर सदा कृपा करना , भूल मत जाना। "
मीरा ने सिर पर हाथ फेर आश्वासन दिया। जोशीजी के आग्रह से मीरा ने मन्दिर में गिरधर के समक्ष, जाने से पहले एक पद गाया.......
🌿मैं गोविन्द के गुण गाणा ।
राजा रूठै नगरी राखै ,
हरि रूठयाँ कह जाणा ॥
🌿राणा भेज्या ज़हर पियाला ,
इमरित करि पी जाणा ॥
🌿डबिया में भेज्या दुई भुजंगम ,
सालिगराम कर जाणा ॥
🌿मीरा तो अब प्रेम दिवानी ,
साँवरिया वर पाणा ॥
मैं गोविन्द के गुण गाणा ॥
क्रमशः ...............
|| मीरा चरित ||
(84)
क्रमशः से आगे ..........
संवत १५९१ वैशाख मास ( 1534 ) में सदा के लिए चित्तौड़ छोड़कर मीरा मेड़ते की ओर चली ।एक दिन भोजराज के दुपट्टे से गाँठ जोड़कर इसी वैशाख मास में गाजे - बाजे के साथ वे इस महल की देहली पर पालकी से उतरी थी। आज सबसे मिलकर इस देहली से विदाई ले रही है। ये वे महल-चौबारे थे , जहाँ उसने कई उत्सव किए थे , जहां उसके गिरधरलाल ने अनेक चमत्कार दिखाये थे , जहाँ उसके प्रिय सखा कलियुग में द्वापर के भीष्म से भी अधिक भीषण प्रतिज्ञा का पालन करने वाले महाभीष्म भोजराज ने देह छोड़ी थी और जहाँ विक्रमादित्य ने उसके विरुद्ध कई षडयन्त्र रचायें थे ।
एकबार भरपूर नज़र से उसने सबको देखा ,उस कक्ष में जहाँ भोजराज विराजते थे ....वे वहाँ जाकर खड़ी हो गई। पंचरंगी लहरिये का साफा , गले में जड़ाऊ कण्ठा-पदक पहने ,कटार -तलवार बाँधे , हँसते - मुस्कराते भोजराज मानों उसके सम्मुख खड़े हो गये थे। मीरा की आँखें भर आई ," सीख बख्शाओं, महाराजकुमार ! विदा , विदा मेरे सखा ! मेरे सुदृढ़ कवच ! मुझसे जो भूलें , जो अपराध हुये हों , उनके लिए मैं क्षमा याचना करती हूँ। " कहते हुये मीरा ने मस्तक धरती पर रख भोजराज को प्रणाम किया, " मैं अभागिनी आपको कोई सुख नहीं पहुँचा सकी, कोई सेवा नहीं कर सकी। अपने गुणों और धीर - गम्भीर स्वभाव से आपने जो मेरी सहायता की और सदा ढाल बनकर रहे , जो भीष्म प्रतिज्ञा आपने की और अंत तक उसे निभाया , उसके बदले मैं अकिंचन आपको क्या नज़र करूँ ? किन्तु हे मेरे सखा ! मेरे स्वामी सर्व समर्थ है। वे देंगे आपको अपनी इस दासी की सहायता का प्रतिफल। आपका मंगल हो...आप जहाँ भी है ....मेरा आपको प्रणाम "उसने आसुँओं से भरी आँखों से पुनः धरती पर प्रणाम किया।
बहुत देर से चम्पा स्वामिनी को यूँ भावुक हो रोते हुये देख रही थी," बाईसा हुकम ! नीचे पालकी आ गई है , सबसे मिलने पधारें । "
आँसू पौंछकर मीरा उस कक्ष से बाहर आ गई ।आवश्यक सामान और गिरधर की पोशाकें आभूषण सब गाड़ियों पर लदकर जा चुका था। मीरा के जो सेवक और दासियाँ जो चित्तौड़ में ही पीछे रह रहे थे , उनके लिए द्रव्य और जीविका का प्रबन्ध कर दिया था। सभी मन ही मन जानते थे कि अब मीरा वापस चित्तौड़ की ओर मुख न करेगी - सो उसके प्रियजनों के प्राण व्याकुल थे।
मीरा अपनी सासों और गुरूजनों की चरणवन्दना करने पधारी। सब उसे भारी मन से मिले। धनाबाई सास तो उसे ह्रदय से लगा बिलख पड़ी तो मीरा ने उन्हें आश्वस्त किया। हाड़ी जी ( विक्रमादित्य की माता ) को मीरा ने प्रणाम कर अपने अन्जाने में अपराधों के लिए क्षमा माँगी। हाँडीजी बोली ," पहले मैं समझती थी कि तुम जानबूझ कर हम सबकी अवज्ञा करती हो बीनणी ! किन्तु बाद में मैं समझ गई कि भक्ति के आवेश में तुम्हें किसी का ध्यान नहीं रहता। तुमसे पल्ला फैला एक भिक्षा माँगती हूँ.......दोगी ? हमारे किए अपराधों को मन में .............."
मीरा ने स्नेह से सास का पल्ला हटाकर उनके दोनों हाथ पकड़कर माथे से लगाते हुये बोली ," ये हाथ किसी के सामने फैलाने के लिए नहीं बने है ये हाथ आश्रितों पर छत्रछाया करने और मुझ जैसी अबोध को आशीर्वाद देने के लिए बने है। यह चित्तौड़ की जननी के हाथ है , आपके ऐसा करने से आपके राजमाता के पद का अपमान होता है ।"
" नहीं !मुझे कहने दो बीणनी !" कहते कहते हाड़ी जी की आँखों से आँसू बहने लगे ।
" नहीं हुकम ! कुछ मत फरमाइये आप। मेरे मन में कभी किसी के लिए रोष नहीं आया। मनुष्य अपने कर्मों का ही फल भोगता है। दूसरा कोई भी उसे दुख यां सुख नहीं दे सकता , यह मेरा दृढ़ विश्वास है । आप निश्चिंत रहे। भगवान कभी किसी का बुरा नहीं करते ।उसके विधान में सबका हित , सबका मंगल ही छिपा होता है " मीरा ने स्नेह से सास को ह्रदय से लगाया तथा प्रणाम कर चलने की आज्ञा माँगी।
मीरा का लक्ष्य उसे अपनी तरफ़ पुकार रहा था। वह धीरेधीरे पिछलें रिश्तों को सम्मान देकर आगे बढ़ने लगी......... उसके ह्रदय में कहीं दूर से एक ही संगीत ध्वनि सुनाई दे रही थी ...............
🌿चालाँ वाही देस...........
क्रमशः .............
|| मीरा चरित ||
(85)
क्रमशः से आगे.............
मीरा राजमाता जी के महल से निकल दास दासियों को यथायोग्य अभिवादन करती पालकी में आ बैठी ।सब मुक्त कण्ठ से मीरा की प्रशंसा कर रहे थे। तभी ननद उदयकुँवर बाईसा उसके चरणों से आकर लिपट गई तो मीरा ने उसे ह्रदय से लगा आश्वस्त किया ।
" भाभी म्हाँरा ! मैं आपकी हूँ , आप मुझे भूल मत जाइयेगा। मेरे ठाकुर जी तो आप ही हो। मैं किसी और को नहीं जानती " रोते रोते उदा ने कहा।
" धैर्य रखिये। आप म्हाँरा और म्हूँ आपरी हूँ बाईसा। थाप मारने से पानी अलग नहीं हो जाता। पर मनुष्य की शक्ति कितनी ? - आप उस सर्व समर्थ ठाकुर जी पर विश्वास कीजिए , उनके चरणों में मन लगाईये , उसके नाम का आश्रय लीजिए" मीरा ने समझाया। उदयकुँवर मुँह ढाँप कर जैसे ही एक तरफ़ हुई तभी कुमकुम आकर मीरा के चरणों में पड़ गई ।उसकी आँखों से झरता जल मीरा के पाँव पखारने लगा।
" उठो , तुम पर तो बहुत कृपा की है प्रभु ने ।अपनी दृष्टि संसार और इसके सुखों की ओर नहीं , प्रभु की ओर रखना। मन के सभी परदे उनके सामने खोल देना। ह्रदय में उनसे छिपा कुछ रह न जाए , यह ध्यान रखना। "
मीरा की पालकी भोजराज के बनवाये हुये मन्दिर की ओर चली प्रभु के दर्शन कर जब वह प्रांगण में खड़ी हुईं तो उसे प्राण प्रतिष्ठा का वो दिन स्मरण हो आया जब वह भोजराज के साथ पूजा के लिए बैठी थी, " कैसा अनोखा व्यक्तित्व था भोजराज का ! लोगों के अपवाद , मुखर जिह्वायें उनके पलकें उठाकर देखते ही तालू से चिपक जाती थी ।तन और मन की सारी उमंग, सारे उत्साह को मेरी प्रसन्नता पर न्यौछावर करने वाले हे महावीर नरसिंह ! प्रभु आपके मानव जीवन का चरम फल बख्शेंगें। " उसे ज्ञात ही नहीं हुआ कि कब उसकी आँखों से नीर बहने लगा। आँसू पौंछ वे नीचे झुकी और प्रागंण की रज उठा मीरा ने सीस चढ़ाई - " कितने संतों , भक्तों की चरण रज है यह ।"
जोशीजी ने मीरा को चरणामृत दिया तो उसने ठाकुर जी की पूजा सेवा का प्रबन्ध ठीक से रखने की प्रार्थना की। बाहर आते उसे नन्हें देवर उदयसिंह मिल गये तो उसे दुलार कर उसके सिर पर हाथ रखा। मन्दिर से मिले प्रसाद की कणिका मुख में रख थोड़ा उदयसिंह के मुख में डाला। बाकी प्रसाद उसकी धाय पन्ना राजपूत को दे कर कहा ," बड़े से बड़ा मूल्य चुका कर भी इस वट बीज की रक्षा करना। कल यह विशाल घना वृक्ष बनकर मेवाड़ को छाया देगा। "
ब्राह्मणों को दान, गरीबों को अन्न वस्त्र दे मीरा पालकी में सवार हुई - मानों चित्तौड़ का जीवंत सौभाग्य विदा हो रहा हो। कुछ स्त्रियाँ विदाई के गीत गाती साथ चली पर मीरा ने सबको समझा बुझा कर लौटाया । महराणा और उमराव नगर के बाहर तक पहुंचाने पधारे। सवारी ठहरने पर महराणा विक्रमादित्य पालकी के समीप पहुंचे। हाथ जोड़कर वह झुके और बोले;" खम्माधणी ! "
मीरा ने हँसकर हाथ जोड़े;"सदा के लिए विदा दीजिये अपने इस खोटी भौजाई को। अब ये आपको कष्ट देने पुन: हाज़िर नहीं होगी। मुझसे जाने अन्जाने में जो अपराध बने हो, उनके लिए क्षमा बख्शावें ! "
महाराणा घबराकर बोल उठे,"ये क्या फरमाती है भाभी म्हाँरा ! कुल कान की खातिर, जो कुछ कभी कभार अर्ज कर देता था, उसके लिए मुझे ही क्षमा मांगनी चाहिए ।"
" भगवान आपको सुमति बख्शे !" मीरा ने हाथ जोड़े - " मेरे मन में कभी आपका कोई कार्य अथवा बात अपराध जैसी लगी ही नहीं ।फिर माफी कैसी लालजीसा ! यह राज जैसे अन्नदाता हुकम चलाते थे, वैसे ही आप भी चलायें ,यही सब की कामना है।
मुकुन्द दास और श्यामकुँवर ने भी सबसे विदा ली। मीरा की कुछ दासियाँ सपरिवार साथ थी हीं। जो साथ नहीं चल सकते थे, जिनकी जड़े अब चित्तौड़ में जम चुकी थी ,उन्हें मीरा ने स्नेह से समझा कर वापिस भेजा। किन्तु संतों और यात्रियों की टोली तो साथ ही चली।
मीरा चित्तौड़ से अपना मन सदा के लिये उधेड़ कर अपने लक्ष्य की ओर पग बढ़ा चुकी थी। उसके जीवन का एक और अध्याय रचने जा रहा था। उसके मन में अपूर्व प्रसन्नता थी .....उसे दूर से वही संगीत लहरी सुनाई दे रही थी...............
🌿चाला वाही देस...........
क्रमशः ...........
|| मीरा चरित ||
(86)
क्रमशः से आगे.............
तीस वर्ष की आयु में मीरा ने चित्तौड़ का परित्याग करके पुनः मेड़ता में निवास किया। उसके हितैषी स्वजनों , चाकरों और दासियों को मानों बिन माँगे वरदान मिला। हर्ष और निश्चिन्तता से उनके आशंकित - आतंकित मन खिल उठे। मेड़ते का श्यामकुन्ज पुनः आबाद हुआ। कथा - वार्ता , उत्सव और सत्संग की सीर खुल गई।
मेड़ता का श्याम कुन्ज उत्सव और सत्संग की उल्लास भरी उमंग से एकबार पुनः खिलखिला उठा। किन्तु मीरा के गिरधर गोपाल की योजना कुछ और ही थी । उसके प्राणधन श्यामसुन्दर को अपनी प्रेयसी का अपने धाम से दूर रहना नहीं सुहाता था। मीरा ने चित्तौड़ छोड़ दिया ,केवल इतने मात्र से वे संतुष्ट नहीं थे। वे इकलखोर देवता जो ठहरे। उन्हें चाहने वाला दूसरों की आस करे, यह वे तनिक भी सह नहीं पाते। लेना देना सब का सब पूरा चाहिए उन्हें। जिसे उन्होंने अपना लिया , उसका और कोई अपना रहे ही क्यों ? बस ठाकुर जी की इच्छा से राजनैतिक परिस्थितियाँ करवट बदलने लगी।
मीरा के चित्तौड़ त्याग के बाद बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। राजपूत वीरों ने घमासान युद्ध किया पर सफलता नहीं मिल पाई। इस युद्ध में बत्तीस हज़ार राजपूत वीरगति को प्राप्त हुये और तेरह हज़ार स्त्रियाँ राजमाता हाड़ीजी के साथ जौहर की ज्वाला में कूदकर स्वाहा हो गई।
इन्हीं बीच पासवान पुत्र वनवीर की राज्य - लिप्सा बढ़ चली और उसने एक रात महाराणा विक्रमादित्य को तलवार से मार डाला ।राज्य को अकंटक बनाने की लोलुपता में वह वनवीर तो महाराणा के छोटे भाई उदयसिंह को भी मार डालना चाहता था , परन्तु पन्ना धाय ने अपने पुत्र की बलि देकर उदयसिंह के प्राणों की रक्षा की।
उधर मेड़ता की स्थिति भी अच्छी नहीं थी ,उसपर भी भीषण विपत्ति टूट पड़ी। मीरा को मेड़ता आये हुये अभी दो वर्ष ही हुये थे कि जोधपुर के मालदेव ने मेड़ता पर चढ़ाई कर दी। सामन्तों के समझाया ," परस्पर में व्यर्थ का संघर्ष उचित नहीं। जब उनका आवेश शांत हो जायेगा , तब हम सब लोग उन्हें समझा कर आपको मेड़ता वापिस दिलवा देंगे। " सरल ह्रदय वीरमदेव जी उन सामन्तों पर विश्वास करके मेड़ता छोड़ अजमेर आ गये - और वहाँ से नराणा तथा फिर पुष्कर। भाग्य की रेखाएँ वक्र थी जो उनको ज़गह ज़गह भटकना पड़ रहा था। मीराबाई भी परिवार के साथ ही थी।
सन् 1595 में पुष्कर में निवास करते समय मीरा के चिन्तन में मोड़ आया। प्रेरणा देनेवाले भी वही जीवन अराध्य गोपाल ही थे। मीरा सोचने लगी कि दर दर ठोकर खाने की अपेक्षा यही उचित है कि अपने प्राण प्रियतम के देश वृन्दावन में वास किया जाए। उसे मन ही मन बड़ी ग्लानि हो रही थी कि ऐसा निश्चय वे अब तक क्यों नहीं कर पाई। कुछ सैनिकों और अपनी दासियों के साथ वह तीर्थ यात्रियों की टोली के संग वृन्दावन की तरफ़ चल पड़ी ........
" चाला वाही देस" की संगीत लहरियाँ उसके ह्रदय में हिलोर लेने लगी - आज उसका एक एक स्वप्न साकार रूप लेने को तैयार था। वह बार बार वृन्दावन नाम का उच्चारण मन ही मन करते पुलकित हो उठती ..... उसकी भावनाओं को पंख से लग गये थे ......वह आज अपने प्रियतम गिरधरलाल के देस जा रही थी और उनके लिए आज उनकी बैरागन बनना ही उसका सौभाग्य था .......
🌿 व्हाला मैं बैरागन हूँगी.......
जिन भेषाँ मेरो साहिब रीझो सो ही भेष धरूँगी॥
कहो तो कसूमल साड़ी रँगावाँ,
कहो तो भगवा भेस ॥
कहो तो मोतियन माँग पुरावाँ ,
कहो छिटकावा केस ॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
सुणज्यो बिड़द नरेस ॥🌿
क्रमशः ................
🙏🏼🌹 राधे राधे 🌹🙏🏼
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✍🏽 WhatsApp या Facebook पर मीरा चरित का यह जो प्रसंग आता है, भाग 1 से लेकर भाग 123 तक, यह संक्षेप में है। जो मुख्य रूप से पुस्तक से लेकर लिखा गया है। लेकिन पुस्तक में और विस्तार से लिखा हुआ है और भी बहुत सारे प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे, जो कि बहुत ही रोचक है, भावुक कर देने वाला प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे। इसलिए निवेदन है कि मीरा चरित पुस्तक जरूर पढ़ें। और यदि आप पुस्तक मंगवाना चाहते हैं तो आप इस पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।
श्री राधे...