मीरा चरित भाग 69 से भाग 74 तक

|| श्रीकृष्ण ||
|| मीरा चरित ||
(69)
क्रमशः से आगे ................

श्रावण की फुहार तप्त धरती को भिगो मिट्टी की सौंधी सुगन्ध हवा में बिखेर रही है ।रात्रि के बढ़ने के साथसाथ वर्षा की झड़ी भी बढ़ने लगी ।भक्तों के लिए कोई ऋतु की सुगन्ध हो याँ उत्सव का उत्साह , उनके लिए तो वह सब प्रियालाल जी की लीलाओं से जुड़ा रहता है ।मीरा बाहर आंगन में आ भीगने लगी ।दासियों ने बहुत प्रयत्न किया कि वे महल में पधार जाये, किन्तु भाव तरंगो पर बहती हुई वह प्रलाप करने लगी ।

" सखी ! मैं अपनी सखियों का संदेश पाकर श्यामसुंदर को ढूँढते हुये वन की ओर निकल गयी ।जानती हो , वहाँ क्या देखा ? एक हाथ में वंशी और दूसरे हाथ से सघन तमाल की शाखा थामें हुये श्यामसुन्दर मानों किसी की प्रतीक्षा कर रहे है ।अहा......... कैसी छटा है........... क्या कहूँ .....! ऊपर गगन में श्याम मेघ उमड़ रहे थे ।उनमें रह रहकर दामिनी दमक जाती थी ।पवन के वेग से उनका पीताम्बर फहरा रहा था ।हे सखी ! मैं उस रूप का मैं कैसे वर्णन करूँ ? कहाँ से आरम्भ करूँ ? शिखीपिच्छ ( मोर के पंख ) से याँ अरूण चारू चरण से ? वह प्रलम्ब बाहु (घुटनों तक लम्बी भुजाएँ ), वह विशाल वक्ष , वह सुंदर ग्रीवा ,वह बिम्बाधर , वह नाहर सी कटि ( शेर सी कटि ) , दृष्टि जहाँ जाती है वहीं उलझ कर रह जाती है ।,उनके सघन घुँघराले केश पवन के वेग से दौड़ दौड़ करके कुण्डलों में उलझ जाते है ।"

" आज एक और आश्चर्य देखा , मानों घन - दामिनी तीन ठौर पर साथ खेल रहे हों ।गगन में बादल और बिजली , धरा पर घनश्याम और पीताम्बर तथा प्रियतम के मुख मण्डल में घनकृष्ण कुंतल ( घुँघराली अलकावलि ) और स्वर्ण कुण्डल ।"

" मैं उन्हें विशेष आश्चर्य से देख रही थी कि उनके अधरों पर मुस्कान खेल गई ।इधरउधर देखते हुए उनके कमल की पंखुड़ी से दीर्घ नेत्र मुझपर आ ठहरे ।रक्तिम डोरों से सजे वे नयन , वह चितवन ,क्या कहूँ ? सृष्टि में ऐसी कौन सी कुमारी होगी जो इन्हें देख स्वयं को न भूल जाये ।इस रूप के सागर को अक्षरों की सीमा में कोई कैसे बाँधे? "

" इधर दुरन्त लज्जा ने कौन जाने कब का बैर याद किया कि नेत्रों में जल भर आया , पलकें मन-मन भर की होकर झुक गई ।मैं अभी स्वयं को सँभाल भी नहीं पाई थी कि श्यामसुन्दर के नुपूर , कंकण और करघनी की मधुर झंकार से मैं चौंक गई ।अहो , कैसी मूर्ख हूँ मैं ? मैं तो श्री जू का संदेश लेकर आई थी श्री श्यामसुन्दर को झूलन के लिये बुलाने के लिये और यहाँ अपने ही झमेले में ही फँस गई ।एकाएक मैं धीरे से धीमे स्वर में प्रियाजी का संकेत समझाते हुये गाने लगी......

🌿 म्हाँरे हिंदे हिंदण हालो बिहारी ,
हिरदै नेह हिलोर जी । 🌿

श्रावण की रात्रि में , बाहर आगंन में खड़ी मीरा भीग रही थी। अपनी भाव तरंगों में बहते बहते वह लीला स्मृति में खो गई। वह श्री राधारानी का श्री श्यामसुन्दर के लिये झूलन का संदेश लेकर आई थी पर दूर से ही श्री कृष्ण का रूप माधुर्य दर्शन कर स्वयं की सुध बुध खो बैठी।

" श्री स्वामिनी जू ने कहा था ," कि हे श्री श्यामसुन्दर ! मेरे ह्रदय में आपके संग झूला झूलन की तरंग हिलोर ले रही है । ऐसे में आप कहाँ हो ? देखिए न ! बरसाना के सारें उपवनों में चारों ओर हरितिमा ही हरितिमा छा रही है। कोयल ,पपीहा गा गाकर और मोर नृत्य कर हमें प्रकृति का सौन्दर्य दर्शन के लिये आमन्त्रित कर रहे है। हे श्यामसुन्दर ! आपके संग से ही मुझे प्रत्येक उत्सव मधुर लगता है ।हे राधा के नयनों के चकोर ! आप इतनी भावमय ऋतु में कहाँ हो ? मैं कब से सखियों के संग यहाँ निकुन्ज में आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ। प्रियतम के दर्शन के बिना मेरा ह्रदय अतिशय व्याकुल हो रहा है और मेरे तृषित नेत्र अपने चितचोर की कबसे बाट निहार रहे हैं। " यह सब श्री स्वामिनी जू का संदेश कहना था और यहाँ मैं अपने ही झमेले में उलझ गई। एकाएक प्रियाजी का संदेश मीरा गा उठी .........

🌿म्हाँरे हिंदे हिंदण हालो बिहारी ,
हिरदै नेह हिलोर जी। 
बरसाने रा हरिया बाँगा ,
हरियाली चहुँ ओर जी ॥

...बाट जोवती कद आसी जी ,
कद आसी चितचोर जी ॥🌿

" क्यों री ! कबकी खड़ी इधरउधर ताके जा रही है और अब जाकर तुझे स्मरण आया है कि " राधे ने संदेश भिजवाया है - " म्हाँरे हिंदे हिंदण हालो बिहारी " , चल ! कहाँ चलना है ?" कहते हुये मेरा हाथ पकड़ कर वे चल पड़े ।

" हे सखी ! वहां हम सब सखियों ने विभिन्न विभिन्न रंगों से सुसज्जित कर रेशम की डोर से कदम्ब की डाली पर झूला डाला। उस झूले पर श्री राधागोविन्द विराजित हुये। दोनों तरफ़ से हम सब सखियाँ सब गीत गाते हुये उन्हें झुलाने लगी। दोनों हँसते हुये मधुर मधुर वार्तालाप करते हुये अतिशय आनन्द में निमग्न थे। हम प्रियालाल जी के आनन्द से आनन्दित थे।

क्रमशः ................

|| मीरा चरित ||
(70)
क्रमशः से आगे ...............

सुन्दर फूलों से लदी कदम्ब की डारी पर झूला पड़ा है। मीरा भी अपनी भाव तरंग में अन्य सखियों के संग गाती हुईं श्री राधामाधव को झूला झुला रही है। झूलते झूलते जभी बीच में से श्यामसुन्दर मेरी ओर देख पड़ते तो मैं लज्जा भरी ऊहापोह में गाना भी भूल जाती ।थोड़ी देर बाद श्यामसुन्दर झूले से उतर पड़े और किशोरीजू को झूलाने लगे ।एक प्रहर हास-परिहास राग-रंग में बीता ।इसके पश्चात सखियों के साथ किशोरी जी चली गई ।श्यामसुन्दर भी गायों को एकत्रित करने चले गये ।

तब मैं झुरमुट में से निकलकर और झूले पर बैठकर धीरेधीरे झूलने लगी ।नयन और मन प्रियालाल जी की झूलन लीला की पुनरावृति करने में लगे थे। कितना समय बीता ,मुझे ध्यान न रहा ।मेरा ध्यान बँटा जब किसी ने पीछे से मेरी आँखें मूँद ली। मैंने सोचा कि कोई सखी होगी। मैं तो अपने ही चिन्तन में थी - सो अच्छा तो नहीं लगा उस समय किसी का आना , पर जब कोई आ ही गया हो तो क्या हो ? मैंने कहा," आ सखी ! तू भी बैठ जा ! हम दोनों साथसाथ झूलेंगी ।"

वह भी मेरी आँखें छोड़कर आ बैठी मेरे पास। झूले का वेग थोड़ा बढ़ा ।अपने ही विचारों में मग्न मैंने सोचा कि यह सखी बोलती क्यों नहीं ? " क्या बात है सखी ! बोलेगी नाय ?" मैंने जैसे ही यह पूछा और तत्काल ही नासिका ने सूचना दी कि कमल , तुलसी , चन्दन और केसर की मिली जुली सुगन्ध कहीं समीप ही है ।एकदम मुड़ते हुये मैंने कहा ," सखी ! श्यामसुन्दर कहीं समीप ही .......... ओ......ह........!"

मैंने हथेली से अपना मुँह दबा लिया क्योंकि मेरे समीप बैठी सखी नहीं श्यामसुन्दर थे।

" कहा भयो री ! कबसे मोहे सखी सखी कहकर बतराये रही हती ।अब देखते ही चुप काहे हो गई ?"

मैं लज्जा से लाल हो गई। मुझे झूले पर वापिस पकड़ कर बिठाते हुये बोले ," बैठ ! अब मैं तुझे झुलाता हूँ। " मेरे तो हाथ पाँव ढीले पड़ने लगे। एक तो श्यामसुन्दर का स्पर्श और उनकी सुगन्ध मुझे मत्त किए जा रही थी। उन्होंने जो झूला बढ़ाना आरम्भ किया तो क्या कहूँ सखी , "चढ़ता तो दीखे वैकुण्ठ ,उतरताँ ब्रजधाम।यहाँ अपना ही आप नहीं दिखाई दे रहा था। लगता था , जैसे अभी पाँव छूटे के छूटे। जगत का दृश्य लोप हो गया था। बस श्रीकृष्ण की मुझे चिढ़ाती हँसी की लहरियाँ ,उनके श्री अंग की सुगन्ध एवं वह दिव्य स्पर्श ही मुझे घेरे था । अकस्मात एक पाँव छूटा और क्षण भर में मैं धरा पर जा गिरती पर ठाकुर ने मुझे संभाल लिया। पर मैं अचेत हो गई ।"

"न जाने कितना समय निकल गया , जब चेत आया तो देखा हल्की हल्की फुहार पड़ रही है और श्यामसुन्दर मेरे चेतना में आने की प्रतीक्षा कर रहे थे ।मुझे आँखें खोलते प्रसन्न हो बोले ," क्यों री ! यह यूँ अचेत हो जाने का रोग कब से लगा ?ऐसे रोग को पाल कर झूला झूलने लगी थी ? कहीं गिरती तो ? मेरे ही माथे आती न ? आज ही सांझ को चल तेरी मैया से कहूँगा। इसे घर से बाहर न जाने दो ।अचेत होकर कहीं यमुना में जा पड़ी तो जय-जय सीता राम हो जायेगा। "

"वे खुल कर हँस पड़े । मैं उठ बैठी तो वह बोले ," अब कैसा जी है तेरा ?" हां बोलूँ कि न - बस ह्रदय निश्चित नहीं कर पा रहा था इस आशंका से कहीं ठाकुर चले न जाए - बस सोच ही रही थी कि आँखों के आगे से वह रूप रस सुधा का सरोवर लुप्त हो गया। हाय ! मैं तो अभी कुछ कह भी न पाई थी-नयन भी यूँ अतृप्त से रह गये ............।

क्रमशः ..............

|| मीरा चरित ||
(71)
क्रमशः से आगे ...............

मीरा अपने भाव आवेश में ही थी। श्री श्यामसुन्दर उससे हँस हँस कर बातें कर रहे थे। वह लज्जा वश अभी कुछ मन की कह भी न पाई थी कि श्यामसुन्दर न जाने कहाँ चले गये ।नयन और ह्रदय अतृप्त ही रह गये और वह रूप-रस का सरोवर लुप्त हो गया।

अभी तक तो दासियाँ उसे बाहर बरखा में भावावेश में प्रसन्नता से भीगता हुआ देख रही थी-अब उन्हें मीरा का विरह प्रलाप सुनाई दिया ," हे नाथ ! मुझे आप यूँ यहाँ अकेले छोड़ कर क्यूँ परदेस चले गये ? देखो , श्रावण में सब प्रकृति प्रसन्न दिखाई पड़ती है - पर आपके दर्शन के बिना मुझे कुछ भी नहीं सुहाता। मेरा ह्रदय धैर्य नहीं धारण कर पा रहा नाथ ! मैंने अपने आँसुओ में भीगे आपको कितने ही संदेश ,कितने ही पत्र लिख भेजे है, मैं कब से आपकी बाट निहारती हूँ ...... आप कब घर आयेंगे ? हे मेरे गिरधर नागर ! आप मुझे कब दर्शन देंगे ? "

दासियाँ स्वामिनी को किसी प्रकार भीतर ले गई , किन्तु मीरा के भावसमुद्र की उत्ताल तरंगे थमती ही न थी - " आप मुझे भूल गये न नाथ ! आपने तो वचन दिया था कि शीघ्र ही आऊँगा। अपना वह वचन भी भूल गये ? निर्मोही ! तुम्हारे बिन अब मैं कैसे जीऊँ ? सखियों ! श्यामसुन्दर कितने कठोर हो गये है ?"

🌿देखो सइयाँ हरि मन काठों कियो ।
आवन कहगयो अजहुँ न आयो करि करि वचन गयो।
खानपान सुधबुध सब बिसरी कैसे करि मैं जियो॥
वचन तुम्हारे तुमहि बिसारे मन मेरो हरि लियो।
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर तुम बिन फटत हियो॥

दासियाँ प्रयत्न करके थक गई, किन्तु मीरा ने अन्न का कण तक न ग्रहण किया। रह रह कर जब बादल गरज उठते और मोर पपीहा गाते तो वह भागकर बाहर की ओर भागती-" हे मतवारे बादलों ! क्या तुम दूर देस से उड़कर मुझ विरहणी के लिए मेरे प्रियतम का संदेश लाये हो ?"

🌿मतवारे बादल आये रे.....
हरि का संदेसो कबहुँ न लाये रे ॥
🌿दादुर मोर पपीहा बोले .....
कोयल सबद सुनाये रे ॥
🌿कारी अंधियारी बिजुरी चमकें...
बिरहणि अति डरपाये रे ॥
🌿गाजे बाजे पवन मधुरिया ....
मेहा मति झड़ लाये रे ॥
🌿कारो नाग बिरह अति जारी...
मीरा मन हरि भाये रे ॥

इधर न उसकी आँखों से बरसती झड़ी थमती थी और न गगन से बादलों की झड़ी। उसी समय कड़कड़ाहट करती हुई बिजली चमकी और बादल भयंकर रूप से गर्जन कर उठे। श्रावण की भीगी रात्रि में श्री कृष्ण के विरहरस में भीगी मीरा भयभीत हो किन्हीं बाँहों की शरण ढूँढने लगी........

🌿बादल देख डरी हो स्याम मैं बादल देख डरी।
काली पीली घटा उमड़ी बरस्यो एक घड़ी ।
जित जोऊँ तित पाणी पाणी हुई हुई भौम हरी॥
जाकाँ पिय परदेस बसत है भीजे बाहर खरी। 
मीरा के प्रभु हरि अविनाशी कीजो प्रीत खरी॥
🌿बादल देख डरी हो स्याम मैं ....

क्रमशः .....

|| मीरा चरित ||
(72)
क्रमशः से आगे ...................

श्रावण की रात्रि में मीरा श्री कृष्ण के विरह में व्याकुल अपने महल के बाहर आंगन में झर झर झरती बूँदो को देख रही है ।उसे महल के भीतर रहना ज़रा भी सुहा नहीं रहा । दासियाँ उसे विश्राम के लिए कह कहकर थक गई है , पर वह अपलक वर्षा की फुहार को निहारे जा रही है।
प्रेमी ह्रदय का पार पाना , उसे समझना बहुत कठिन होता है। क्योंकि भीतर की मनोस्थिति ही प्रेमी के बाहर का व्यवहार निश्चित करती है। अभी तो मीरा को बादल गरज गरज कर और बिजुरिया चमक चमक कर भयभीत कर रहे थे। और अभी एकाएक मीरा की विचारों की धारा पलटी - उसे सब प्रकृति प्रसन्न और सुन्दर धुली हुई दिखने लगी।

मीरा भाव आवेश में पुनः बरसाने के उपवन में पहुँच कर प्रियालाल जी की झूलन लीला दर्शन करने लगी - " कदम्ब की शाखा पर अति सुसज्जित रेशम की डोरी से सुन्दर झूला पड़ा हुआ है। सखियों ने झूले को नाना प्रकार के रंगों और सुगंधित फूलों से सुन्दर रीति से आलंकृत किया है । श्रीराधारानी और नन्दकिशोर झूले पर विराजित है और सखियाँ मधुर मधुर ताल के साथ तान ले पंचम स्वर में गा रही है।कोयल और पपीहरा मधुर रागिनी में स्वर मिला कर सखियों का साथ दे रहे है ।शुक सारिका और मोर विविध नृत्य भंगिमाओं से प्रिया प्रियतम की प्रसन्नता में उल्लसित हो रहे है। हे सखी ! ऐसी दिव्य युगल जोड़ी के चरणों में मेरा मन बलिहार हो रहा है ।"

बरसती बरखा में श्री राधा श्यामसुन्दर के इस विहार को वह मुग्ध मन से निहारते गाने लगी........

🌿आयो सावन अधिक सुहावना
बनमें बोलन लागे मोर||
🌿उमड़ घुमड़ कर कारी बदरियाँ
बरस रही चहुँ और।
अमुवाँ की डारी बोले कोयलिया
करे पप्पीहरा शोर||
🌿चम्पा जूही बेला चमेली
गमक रही चहुँ ओर।
निर्मल नीर बहत यमुना को
शीतल पवन झकोर||
🌿वृंदावन में खेल करत है
राधे नंद किशोर।
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर
गोपियन को चितचोर||

चार-चार, छ:-छ: दिन तक मीरका आवेश नहीं उतरता। दासियोंके सतत प्रयत्न से ही थोड़ा पेय अथवा नाम-मात्रका भोजन प्रसाद उनके गले उतर पाता।

क्रमश:..................

|| मीरा चरित ||
(73)
क्रमशः से आगे ..............

महाराणा विक्रमादित्य के मन का परिताप ,क्रोध मीरा के प्रति बढ़ता ही जा रहा था ।वह अपनी प्रत्येक राजनीतिक असफलता के लिए , परिवारिक सम्बन्धों की कटुता के लिए मीरा को ही दोषी ठहरा रहा था ।
सौहार्द से शून्य वातावरण को देखकर मीरा के मन की उदासीनता बढ़ती जा रही थी। प्राणाराध्य की भक्ति तो छूटने से रही , भले ही सारे अन्य सम्बन्ध टूट जाए। परिवार की विकट परिस्थिति में क्या किया जाये , किससे राय ली जाये ,कुछ सूझ नहीं रहा था।

मायके याँ ससुराल में उसे कोई ऐसा अपना नहीं दिखाई दे रहा था , जिससे वह मन की बात कह कोई सुझाव ले सके। भक्तों को तो एकमात्र गुरूजनों का याँ संतो का ही आश्रय होता है। मीरा ने कुछ ही दिन पहले रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास जी की भक्ति - महिमा और यश-चर्चा के बारे में सुना था।एक भक्त की स्थिति को एक भक्त याँ संत ही सही समझ सकता है ,अपरिचित होते ही भी दो भक्तों में एक रूचि होने से एक आलौकिक अपनत्व का सम्बन्ध रहता है। सो , मीरा ने उनसे पथ प्रदर्शन के आशय से अपने ह्रदय की दुविधा को पत्र में लिख भेजा .........।

🌿
स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषण दूषण हरण गुँसाई।
बारहिं बार प्रणाम करऊँ अब हरहु सोक समुदाई॥
घर के स्वजन हमारे जेते सबन उपाधि बढ़ाई।
साधु-संग अरू भजन करत मोहि देत कलेस महाई॥
बालपन में मीरा कीन्हीं गिरधर लाल मिताई ।
सों तो अब छूटत नहिं क्यों हूँ लगी लगन बरियाई॥
मेरे मात पिता सम तुम हो हरिभक्तन सुखदाई ।
मोंको कहा उचित करिबो अबसो लिखियो समुझाई॥
🌿

पत्र लिखकर मीरा ने श्री सुखपाल ब्राह्मण को बुलवाया और कहा ,"पंडित जी ! आप यह पत्र महाराज श्री तुलसीदास गुँसाई जी को जाकर दीजियेगा ।उनसे हाथ जोड़ कर मेरी ओर से विनती कर कहियेगा कि मैंने पिता सम मानकर मैंने उनसे राय पूछी है , अतः मेरे लिए जो उचित लगे , सो आदेश दीजिये। बचपन से ही भक्ति की जो लौ लगी है ,सो तो अब कैसे छूट पायेगी। वह तो अब प्राणों के साथ ही जायेगी। भक्ति के प्राण सत्संग हैं और घर के लोग सत्संग के बैरी है संतों के साथ मेरा उठना-बैठना , गाना-नाचना और बात करना उन्हें घोर कलंक के समान लगता है ।नित्य ही मुझे क्लेश देने के लिए नये नये उपाय ढूँढते रहते है ।स्त्री का धर्म है कि घर नहीं छोड़े , कुलकानि रखे , शील न छोड़े , अनीति न करे , इनके विचार के अनुसार मैंने घर के अतिरिक्त सब कुछ छोड़ दिया है। अब आप हुकम करें कि मेरे लिए करणीय क्या है ? मेरे निवेदन को सुनकर वे जो कहें ,वह उत्तर लेकर आप शीघ्र पधारने की कृपा करें ,मैं पथ जोहती रहूँगी। "

क्रमशः ...............

|| मीरा चरित ||
(74)
क्रमशः से आगे ................

मीरा चित्तौड़ की परिस्थिति से ,परिवारिक व्यवहार से उदासीन थी ।सो , उसने अपने मन की दुविधा को एक पत्र में लिखा और अत्यंत अपनत्व से मार्ग दर्शन पूछते हुए उसने सुखपाल ब्राह्मण को तुलसीदास गोस्वामी जी के लिए पत्र दिया और उन्हें शीघ्र उत्तर लेकर आने की प्रार्थना भी की।
" पण हुकम ! तुलसी गुँसाई म्हाँने मिलेगा कठै ( कहाँ )? वे इण वकत कठै बिराजे ? " पंडित जी ने पूछा।

" परसों चित्रकूट से एक संत पधारे थे ।उन्होंने भी मुक्त स्वर से सराहना करते हुये मुझे तुलसी गुँसाई जी की भक्ति , वैराग्य , कवित शक्ति आदि के विषय में बताया था ।उनका जीवन वृत्त कहकर बताया कि इस समय वे भक्त शिरोमणि चित्रकूट में विराज रहें है । आप वहीं पधारे ! जैसे तृषित जल की राह तकता है , वैसे ही मैं आपकी प्रतीक्षा करूँगी।" इतना कहते कहते मीरा की आँखें भर आई।

" संत पर साँई उभो है हुकम ! ( सच्चे लोगों का साथ सदा भगवान देते है ) आप चिन्ता न करें। " श्री सुखपाल ब्राह्मण मीरा को आशीर्वाद देकर चल पड़े ।

कुछ दिनों की प्रतीक्षा के पश्चात जब वह ब्राह्मण तुलसीदास जी का पत्र लाये तो वह पत्र पढ़कर मीरा का रोम-रोम पुलकित हो उठा। उसने आनन्द से आँखें बन्द कर ली तो बन्द नेत्रों से हर्ष के मोती झरने लगे। उसने तुलसीदास जी के पत्र का पुनः पुनः मनन किया ............

🌿जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम स्नेही॥
तज्यो पिता प्रह्लाद विभीषण बंधु भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रजबनितनि भये मुद मंगलकारी॥
नातो नेह राम सों मनियत सुह्रद सुसेव्य लौं।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटे बहु तक कहौं कहाँ लौं॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्राण ते प्यारो।
जासो बढ़े सनेह राम पद ऐसो मतो हमारो॥

मीरा तुलसीदास जी के लिखे शब्दों की सत्यता से अतिशय आनन्दित हुई  - " जिसका सिया राम जी से स्नेह का सम्बन्ध न हो, वह व्यक्ति चाहे कितना भी अपना हो, उसे अपने बैरी के समान समझ कर त्याग कर देना चाहिये। जिस प्रकार प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु का , विभीषण ने भाई रावण का, भरत ने माँ कैकयी का , राजा बलि ने गुरु शुक्राचार्य का , और ब्रज की गोपियों ने पति का त्याग किया तथा ये त्याग इन सबके लिए अति मंगलकारी हुआ। ऐसे अंजन के प्रयोग से क्या लाभ जिससे कल को आँख ही फूट जाये तथा ऐसे सम्बन्ध का क्या लाभ जिससे हमें अपने इष्ट से विमुख होना पड़े। तुलसीदास तो शास्त्रों के आधार पर यही सुमति देते है कि हमारे अपने और हितकारी तो इस जगत में बस वही है जिनके सुसंग से हमारी भक्ति श्री सीता राम जी के चरणों में और प्रगाढ़ हो। "

मीरा ने उठकर श्री सुखपाल ब्राह्मण के चरणों में सिर रखा और अतिशय आभार प्रकट करते हुये बोली ," क्या नज़र करूँ ?इस उपकार के बदले मैं आपको कुछ दे पाऊँ - ऐसी कोई वस्तु नज़र नहीं आती ।" फिर उसने भरे कण्ठ से कहा ," आपने मेरी फाँसी काटी है। प्रभु आपकी भव - फाँसी काटेंगे ।आपकी दरिद्रता को दूर करके प्रभु अपनी दुर्लभ भक्ति आपको प्रदान करें , यह मंगल कामना है। यह थोड़ी सी दक्षिणा है। इसे स्वीकार करने की कृपा करें।" मीरा ने उन्हें भोजन कराकर तथा दक्षिणा देकर विदा किया।

क्रमशः ........


🙏🏼🌹राधे राधे 🌹🙏🏼
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✍🏽 WhatsApp या Facebook पर मीरा चरित का यह जो प्रसंग आता है,  भाग 1 से लेकर भाग 123 तक, यह संक्षेप में है। जो मुख्य रूप से पुस्तक से लेकर लिखा गया है। लेकिन पुस्तक में और विस्तार से लिखा हुआ है और भी बहुत सारे प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे, जो कि बहुत ही रोचक है, भावुक कर देने वाला प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे। इसलिए निवेदन है कि मीरा चरित पुस्तक जरूर पढ़ें। और यदि आप  पुस्तक मंगवाना चाहते हैं तो आप इस पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।

श्री राधे...

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