मीरा चरित भाग 57 से भाग 62 तक

|| श्रीकृष्ण ||
|| मीरा चरित ||
(57)
क्रमशः से आगे ...............

मीरा के आने से मेड़ते में भक्ति की भागीरथी उमड़ पड़ी ।मीरा के दर्शन -सत्संग के लिए चित्तौड़ गये संत - महात्मा लौटकर मेड़ता आने लगे ।श्याम कुन्ज की रौनक देखते ही बनती थी ।।मेड़ते से एक वर्ष के पश्चात मीरा ने चित्तौड़ पधारने के लिए प्रस्थान किया ।

चित्तौड़ की सीमा पर मीरा को दिखाई दिए उजड़े हुए गाँव जले हुए खेत , उजड़े हुये खेत और सताये हुये मनुष्य और पशु । ऊपर से सैनिक उन्हें कर के लिए और परेशान कर रहे थे ।चारों ओर अराजकता देख मीरा को बहुत दुख हुआ ।उसने प्रजा को यूँ विवश और दुखी देख अपने और दासियों के गहने उतरवा कर सैनिकों के दे दिये ।मीरा के चित्तौड़ पहुँचते ही क्रोधित होकर राणा उनके महल में पहुँच बरस पड़ा - " आज अर्ज कर रहा हूँ कि मुझे मेरा काम करने दें ।अब कभी बीच में न पड़ियेगा ।नहीं तो मुझसे बुरा कोई न होगा ।चारों ओर बदनामी हो रही है कि मेवाड़ की कुवंरानी बाबाओं की भीड़ में नाचती है ।सुन सुन कर हमारे कान पक गये , पर आपको क्या चिन्ता ।?"

एक भक्त को अपने ठाकुर जी से जुड़ी हर बात प्रिय लगती है यहाँ तक की इस भक्ति के सम्बन्ध से मिली बदनामी भी वह मधुर अमृत की तरह स्वीकार कर लेता है ।

शान्त, अविचलित , धीर, गम्भीर समुद्र की सी मुखमुद्रा धारण किए -मीरा ने अपना सदा का अवलम्बन तानपुरा उठाया और गाने लगी ........

🌿या बदनामी लागे मीठी हो हिन्दूपति राणा ।
......................................
.......................................
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर,
चढ़ गयो रंग मजीठी हो हिंदूपति राणा॥🌿
🔺मजीठी - पक्का रंग , जिसके ऊपर कोई और रंग न चढ़ सके ।

क्रमशः ............................

|| मीरा चरित ||
(58)
क्रमशः से आगे ................

महाराणा का क्रोध मीरा के लिए षडयन्त्र के जाल बुनने लगा ।एक दिन उदयकुँवर बाईसा ने आकर मीरा से कहा - "राणाजी ने आपकी सेवा में यह दासियाँ भेजी है ।"

" बाईसा! मेरी क्या सेवा है ? मेरे पास तो एक ही दो पर्याप्त है ।" मीरा ने हँस कर कहा ।" चलो लालजीसा ने भेजी है तो छोड़ पधारो ।"

दस बारह दिन बाद मिथुला की सारी देह में दाह उत्पन्न हो गया । वैद्यजी आये और उन्होंने कहा कि छोरी बचेगी नहीं ।जाने - अन्जाने में पेट में विष उतर गया है ।

उस दिन मीरा मन्दिर में नहीं पधारी ।रसोई बंद रही ।दासियों के साथ समवेत स्वर में कीर्तन के बोलों से महल गूँजता रहा ।मिथुला का सिर गोद में लेकर मीरा गाने लगी :

🌿हरि मेरे जीवन प्राण अधार ।
और आसरो नाहीं तुम बिन तीनों लोक मँझार॥
तुम बिन मोहि कछु न सुहावै निरख्यो सब संसार।
मीरा कहे मैं दासी रावरी दीजो मती बिसार॥🌿

" बाईसा हुकम ! "मिथुला ने टूटते स्वर में कहा - " आशीर्वाद दीजिये कि जन्म जन्मान्तर आपके चरणों की सेवा प्राप्त हो ।"

" मिथुला ! तू भाग्यवान है ।" मीरा ने उसके सिर पर हाथ फैरते हुये कहा" प्रभु तुझे अपनी सेवा में बुला रहे है ।उनका ध्यान कर, मन में उनके नाम का जप कर ।दूसरी ओर से मन हटा ले ।जाते समय यात्रा का लक्ष्य ही ध्यान में रहना चाहिए , अन्यथा यात्रा निष्फल होती है ।" मीरा ने मिथुला के मुख में चरणामृत डाला ।

" बाईसा हुकम ! देह में बहुत जलन हो रही है ।ध्यान टूट - टूट जाता है ।"
"पीड़ा देह की है मिथुला ! तू तो प्रभु की दासी है ।अपना स्वरूप पहचान । पीड़ा की क्या मजाल है तेरे पास पहुँचने की ? देह की पीड़ा आत्मा को स्पर्श नहीं करती पगली ! देख , ध्यान से सुन, मैं पद गाती हूँ , तू इसके अनुसार प्रभु की छवि का चिन्तन करने का प्रयास कर.........

🌿जब सों मोहि नन्दनन्दन दृष्टि पर्यो माई।
तब तें लोक परलोक कछु न सोहाई॥
मोरन की चँद्रकला सीस मुकुट सोहे।
केसर को तिलक भाल तीन लोक मोहे॥
कुण्डल की झलक अलक कपोलन पै छाई।
मनो मीन सरवर तजि मकर मिलन आई॥
कुटिल भृकुटि तिलक भाल चितवन में टोना।
खंजन अरू मधुप मीन भूले मृग छौना॥
सुन्दर अति नासिका सुग्रीव तीन रेखा।
नटवर प्रभु भेष धरें रूप अति विसेषा॥
अधर बिम्ब अरूण नैन मधुर मंद हाँसी।
दसन दमक दाड़िम दुति चमके चपला सी॥
छुद्र घंटि किंकणी अनूप धुनि सुहाई ।
गिरधर के अंग अंग मीरा बलि जाई ॥🌿

मिथुला ने श्री कृष्ण का नाम ले देह त्याग दी ।मिथुला के यूँ जाने से चम्पा चमेली को ज्ञात हो गया था कि आने वाली दासियाँ कैसी है ।उन्होंने मिलकर मन्त्रणा कर सतर्कता से अपनी स्वामिनी के सारे कार्य स्वयं ही बाँट लिये ।पर फिर भी आये दिन कुछ न कुछ राणा की साजिश से घट ही जाता ।

क्रमशः ...................

|| मीरा चरित ||
(59)
क्रमशः से आगे.............

मीरा की प्रेम भक्ति , भजन-वन्दन की प्रसिद्धि फैलती जा रही थी ।महाराणा विक्रमादित्य ने बहुत प्रयत्न किया कि उनका सत्संग छूट जाये , परन्तु पानी के बहाव को और मनुष्य के उत्साह को कौन रोक पाता है ।सारंगपुर के नवाब ने मीरा की ख्याति सुनी तो वह अपने मन को रोक नहीं पाया ।अतः वह वेश बदल कर अपने वज़ीर के साथ वह मीरा के दर्शन करने के लिए हाजिर हुआ ।

दोनों वेश बदल कर घोड़े पर आये और मन्दिर में आकर साधु-सन्तों के पीछे बैठ गये ।मीरा मन्दिर की वेदी के समक्ष बाँई ओर अपनी दासियों के साथ विराजित थी ।घूँघट न होते हुये भी सिर के पल्लू से उसने मस्तक तक स्वयं को ढक रखा था ।चम्पा और अन्य कई साधु लिखने की सामग्री और पोथी लेकर बैठे हुए थे । पर्दा खुलते ही सब लोग उठ खड़े हुये।

" बोल गिरधरलाल की जय!"
" साँवरिया सेठ की जय !"

मीरा के तानपुरा उठाते ही चम्पा के साथ-ही-साथ कइयों की कलमें काग़ज़ पर चलने लगी ।मधुर राग-स्वर की मोहिनी ने सबके मनों को बाँध लिया ।भावावेग से मीरा की बड़ी बड़ी आँखें मुँद गई ।शांति कैसी होती है, यह तो ऐसे सात्विक वातावरण में बैठे बहुत लोगों ने पहली बार ही जाना ।शाह के ह्रदय में तो सुख और शांति का समुद्र जैसे हिलोरें लेने लगा । यह उसके लिये एक आलौकिक अनुभव था ।

🌿मैं तो साँवरे के रंग राची ।
साजि सिंगार बाँध पग घुँघरू ,
लोक लाज तजि नाचि रे......॥
🌿गई कुमति ,लई साधु की संगति,
भगत रूप भई साँची ।
गाये गाये हरि के गुण निसदिन,
काल व्याल सों बाचि रे......॥
🌿उन बिन सब जग खारो लागत ,
और बाट सब बाँचि रे ।
मीरा श्री गिरधरन लाल की ,
भकति रसीली जाँचि रे.....॥
🌿मैं तो साँवरे के संग राची......॥

मीरा के ह्रदय का हर्ष फूट पड़ा था ।उसकी आँखो से झरते आँसू तानपुरे पर गिर मोतियों की तरह चमक रहे थे ।रागिनी धीमी होती ठहर गईं ।सभी के मन धुले हुये दर्पण की तरह स्वच्छ उजले हो चमक उठे ।भजन पूरा होने पर भी उसकी आँखें न उघड़ी ।शाह प्रेम भक्ति का यह स्वरूप देख असमंजस में था ।वह उस प्रेम की ऊँचाईयों को मापने का प्रयत्न कर रहा था जिसमें खुदा के लिये यूँ झरझर आँसू झरते है ।

क्रमशः .....................

|| मीरा चरित ||
(60)
क्रमशः से आगे ...................

मीरा का गान विश्रमित हुआ तो एक साधु ने गदगद कण्ठ से कहा ," थोड़ी कृपा और हो जाये ।"

" अब आप ही कृपा करें बाबा ! प्रभु के रूप - गुणों का बखान कर प्यासे प्राणों की तृषा को शांत करने की कृपा हो !" मीरा ने विनम्रता से कहा ।

" यह तृषा कहाँ शांत होती है ?" दूसरे संत बोले -" यह तो जितनी बढ़े और दावानल का रूप ले ले, इसी में लाभ है । आप ही श्री श्यामसुन्दर के रूप माधुरी का पद सुनाईये ।"

मीरा ने तानपुरा उठा फिर तान छेड़ी ।समय एकबार फिर मधुर रागिनी की झंकार से बँध गया ........

🌿बृज को बिहारी म्हाँरे हिवड़े बस्यो छे॥
🌿कटि पर लाल काछनी काछे,
हीरा मोती वालो मुकुट धरयो छे ॥
🌿गहि रह्यो डाल कदम की ठाड़ो ,
मोहन मो तन हेरि हँस्यो छे ॥
🌿मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
निरखि दृगन में नीर भरयो छे ॥🌿

भजन पूरा होने के पश्चात भी कुछ देर तक वातावरण में आनन्दाधिक से सन्नाटा रहा ।फिर मीरा ही ने एक संत की ओर देखकर कहा ," आप कुछ फरमाईये कि सब लोग लाभान्वित हो ।"

तो किसी ने जिज्ञासा की - "गुरू कौन ? कहाँ मिले ? कैसे मिले ?"
संत कहने लगे ," सबसे पहले तो यह समझे कि गुरु का स्वरूप क्या है ? परम गुरु शिव ही है ।हम गुरु को देह रूप में भले देखते हो , पर उसमें जो गुरूतत्व है वह शिव ही है ।यह ठीक वैसे ही है जैसे शिवलिंग में शिव है ।

हम पूजा अर्चना शिवलिंग की करते है , किन्तु उस पूजा को स्वीकार करनेवाले शिव स्वयं है ,और वही हमारा कल्याण करते है ।गुरु की पाञ्चभौतिक देह, पूजा - भक्ति - श्रद्धा का माध्यम है किन्तु उपदेश देने वाले याँ प्रसन्न - रूष्ट होने वाले शिव ही है ।"

" अब प्रश्न यह है कि गुरु कैसे मिले ? शिव सर्वत्र है ।यदि सचमुच में आपको आवश्यकता है , आतुरता है तो वह किसी भी स्वरूप में मिलेंगे ही , इसमें सन्देह नहीं ।अब घर बैठे मिले याँ, खोज से ? गुरु की आवश्यकता होने पर वे चाहे भी तो चैन से बैठ नहीं पायेंगे - वे अपनी समझ से अपने क्षेत्र में खोज करेंगे और इसमें भटक भी सकते है ।किन्तु खोज अगर सच्ची है तो गुरु अवश्य मिलेंगे ।जो खोज नहीं कर सकते उनके लिए प्रार्थना और प्रतीक्षा ही अवलम्ब है ।उन्हें वह स्वयं उपलब्ध होंगे , किस रूप में होगें, कहा नहीं जा सकता , पर उनका मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा ।"

"अब कैसे ज्ञात हो कि ये संत है , गुरु है ? जिनके सानिध्य - सामीप्य से अपने इष्ट की ह्रदय में स्वयं स्फूर्ति हो , वह संत है ।और भगवन्नाम सुनकर जिसका ह्रदय द्रवित हो जाये ,वह है साधक ।यह आवश्यक है कि अपनी रूचि का इष्ट और अधिकार के अनुरूप गुरु हो, अन्यथा लाभ होना कठिन है ।" संत ने जिज्ञासा अनुसार सब प्रश्नों का उत्तर देकर कितने ही और पहलुओं पर प्रकाश डालते हुये कहा ।

क्रमशः ...................

|| मीरा चरित ||
(61)
क्रमशः से आगे..............

इतना आलौकिक वातावरण , भावभक्तिपूर्ण संगीत और फिर ज्ञान से भरी कथा - वार्ता श्रवण कर नवाब का मस्तक श्रद्धा से झुक गया ।उसके लिए यह अनुभव नया था ।उसने अपना आप संभाला और धीरेधीरे मीरा के सम्मुख जाकर हाथ जोड़कर गदगद कण्ठ से बोला ," हुनर (कला ), नूर ( तेज़ )और उसके ऊपर खुदाई मुहब्बत यह सब एक साथ नहीं मिलते और न ही एक ज़िंदगी की बख्शीश ( एक जन्म का फल ) हो सकते है ।

आज आपका दीदार करके और खुदा का ऐसा करिश्मा देखकर यह नाचीज़ सुर्खरू हुआ ।अपने खुदा के लिये इस नाचीज़ की छोटी सी भेंट कबूल करके मुझ पर एहसान फरमाईये ।" उसने ज़ेब से हीरों का हार निकाला और अंजलि में लेकर नीचे झुका ।

" ये जैसे मेरे है , वैसे ही आपके भी है , किन्तु ये शुद्ध मन के निश्छल भावों के भूखे है ।यह प्रजा का धन आप गरीबों में सेवा में लगाये ।इन्हें धन नहीं , केवल भक्ति चाहिए ।" मीरा ने कहा ।

" पर दिल की बात किसी न किसी चीज़ के ज़रिये ही तो रोशन होती है ।मेहरबानी होगी आपकी ...........!" कहते हुए उसने माला धरती पर रख दी और आँसू पौंछते हुये वह मन्दिर से बाहर निकल आया ।

नवाब और वज़ीर दोनों बाहर आ घोड़े ले अपनी सरहद की तरफ रवाना हुये ।वज़ीर ने कहा," आपने ठीक नहीं किया जाँहपनाह ! आपने वहाँ बोलकर और वह तोहफा नज़र कर एक तरह से खुद को रोशन ही कर दिया ।आपको भूलना न चाहिए था कि हम दुश्मन के इलाके में है ।"

" ठीक कहते हो खान !मैं अपने आप को ज़ब्त न कर सका ।ओह ,मैं तो अभी तक सोच रहा हूँ कि दुनिया का कोई कलावंत ऐसा भी गा सकता है? लेकिन गायेगा भी कैसे? वह सब लोगों को खुश करने के लिए गाते है और यह मल्लिका खुदा के लिए गाती है ।सच सब कुछ बेनज़ीर है खान ! मेरा यह सफर कामयाब रहा ।बड़े खुशनसीब है यह चित्तौड़ के बाशिन्दे जिन्हें ऐसी मल्लिका नसीब हुई । अगर अब राजपूत आ भी जायें और मैं मारा भी जाऊं तो मुझे अफसोस न होगा ।"

हीरों के हार और नवाब की बोली ने मन्दिर में बैठे लोगों में थोड़ी खलबली मचा दी कि आने वाले मुसलमान थे ।मीरा के कहा ,"सबको एक ही भगवान ने बनाया है और बेटे के आने से बाप का घर भृष्ट नहीं होता ।"
पर यह खबर महाराणा तक पहुँचने में देर न लगी ।

क्रमशः ......................

!! श्री राधारमणाय समर्पणं !!

|| मीरा चरित ||
(62)
क्रमशः से आगे ..............

महाराणा का क्रोध सातवें आसमान पर था ।वह उदयकुँवर के पास पहुँचा और क्रोध से तमतमाते हुये उसने सारी बात बतलाई - " जीजा ! आप सोचो, सारंगपुर के नवाब ने मन्दिर में बैठकर भाभी म्हाँरा के भजन भी सुने और बातचीत भी की ।उसने हीरे की कण्ठी भी भेंट की ।"

उदयकुँवर ने भय और आश्चर्य से भाई को देखा ।

" बहुत सबर कर लिया ।अब तो याँ मैं रहूँगा याँ फिर मेड़तणीजीसा रहेंगी ।इन्होंने तो हमारी पाग ही उछाल दी है ।पहले तो बाबा और महात्मा ही आते थे, अब तो विधर्मियों ने भी रास्ता देख लिया ।अरे हीरे , मोती ही चाहिए थे तो मुझसे कह देती ।कहीं बोलने योग्य नहीं छोड़ा इन कुलक्षिणी ने तो ।जब मैं घर में ही अनुशासन नहीं रख पा रहा तो राज्य कैसे चलाऊँगा ?"

महाराणा ने राजवैद्य को बुलाया और दयाराम पंडा के हाथ सोने के कटोरे में जगन्नाथ जी का चरणामृत कह मीरा के लिए भिजवाया ।दयाराम के पीछे पीछे उदयकुँवर बाईसा भी चली ।मीरा प्रभु के आगे भोग पधरा रही थी ।दयाराम ने कटोरा सम्मुख रख काँपते स्वर से कहा ,"राणाजी ने श्री जगन्नाथजी का चरणामृत भिजवाया है आपके लिये ।"

" अहा ! आज तो सोने का सूर्य उदय हुआ पंडाजी ! लालजीसा ने बड़ी कृपा की । यह कहते हुये मीरा ने कटोरा उठा लिया और उसे प्रभु के चरणों में रखते हुये बोली ," ऐसी कृपा करो कि प्रभु कि राणाजी को सुमति आये ।" फिर पंडाजी से पूछा ," कौन आया है जगन्नाथपुरी से ?"

" मैं नहीं जानता सरकार ! कोई पंडा याँ यात्री आये होगें ।"
चम्पा ,गोमती आदि दासियाँ थोड़ी दूर खड़ी हुई भय और लाचारी से देख रही थी इन चरणामृत लानेवालों को और कभी अपनी स्वामिनी के भोलेपन को ।उनकी आँखें भर-भर आती - " क्यों सताते है इस देवी को यह राक्षस ? क्या चाहते है ? "

उदा भी भाभी का वह शांत-स्वरूप, निश्छल मुस्कुराहट, दर्पण की तरह उज्ज्वल ह्रदय और भगवान पर अथाह विश्वास देख आश्चर्य चकित थी ।
मीरा ने तानपुरा उठाया और तारों पर उँगली फेरते हुये उसने आँखें बंद 
कर ली........

🌿 तुम को शरणागत की लाज ।
भाँत भाँत के चीर पुराये पांचाली के काज॥
🌿प्रतिज्ञा तोड़ी भीष्म के आगे चक्र धर्यो यदुराज।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर दीनबन्धु महाराज ॥

क्रमशः ................

🙏🏼🌹 राधे राधे 🌹🙏🏼
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✍🏽 WhatsApp या Facebook पर मीरा चरित का यह जो प्रसंग आता है,  भाग 1 से लेकर भाग 123 तक, यह संक्षेप में है। जो मुख्य रूप से पुस्तक से लेकर लिखा गया है। लेकिन पुस्तक में और विस्तार से लिखा हुआ है और भी बहुत सारे प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे, जो कि बहुत ही रोचक है, भावुक कर देने वाला प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे। इसलिए निवेदन है कि मीरा चरित पुस्तक जरूर पढ़ें। और यदि आप  पुस्तक मंगवाना चाहते हैं तो आप इस पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।

श्री राधे...

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