मीरा चरित भाग 119 से भाग 123 तक
|| श्रीकृष्ण ||
|| मीरा चरित ||
(119)
क्रमशः से आगे ..........
🌿 मीरा नवकिशोरी दुल्हन से रूप में दिव्य द्वारिका में है। उसे देवी रूक्मिणी ,सत्यभामा सब राज महिषियों से बहुत स्नेह और दुलार मिला ।पर इतने अपनत्व और राग-रंग में उसके आकुल नेत्र अपने प्राणनाथ को ढूँढते रहे। जब सब भोजन के लिए बैठे तो , मीरा स्वयं को रोक नहीं पाई और जाम्बवती से पूछ ही बैठी ," प्रभु के भोजन करने से पूर्व ही हम भोजन कर ले क्या ?"
" स्वामी का भोजन आज माता रोहिणी के महल में है। अपने समस्त सखाओं एवं परिकर के साथ वे आज माता रोहिणी को सुख दे रहे होंगें। "
🌿 हास-परिहास में सबने मिल कर भोजन लिया। और उसके पश्चात् देवी रूक्मिणी को प्रणाम कर सभी महारानियाँ विदा हुईं। " काञ्चना ! अपनी स्वामिनी को इनके अपने महल में लेजाओ !" देवी रूक्मिणी ने एक नव -वया दासी से कहा।
जैसी आज्ञा महादेवी !"
देवी रूक्मिणी की आज्ञा पाकर मीरा संकोचपूर्वक उठ खड़ी हुईं। मीरा ने महादेवी को प्रणाम किया तो उन्होंने ह्रदय से लगाकर उसे स्नेह से विदा किया। दासी पथ बताते चली। मीरा ने देखा कि इस महल का रास्ता रूक्मिणी के महल के अन्तर्गत ही था पर फिर भी कितने कक्ष और दालानों को उन्होंने राह में पार किया। स्थान स्थान पर मीरा का फूलों से स्वागत हुआ जो उसे पद-पद पर संकुचित कर रहा था - वह सोचती - " मुझ नाचीज़ के लिए इतना समारम्भ !!" पर मीरा को द्वारिकाधीश की महारानियों का परस्पर स्नेह और निरभिमानिता प्रशंसनीय लगी और दूसरी ओर दासियों की विनय युक्त सेवा तत्परता और सावधानी भी सराहनीय थी।
🌿 एक रत्नजटित कौशेय वस्त्रों से आच्छादित हिंडोले पर मीरा को काञ्चना ने बिठा दिया। कोई दासी चंवर ,कोई पंखा करने लगी तो कोई पेय ले उपस्थित हुई। एक लगभग तीस वर्ष की दासी ने प्रणाम कर निवेदन किया ," सरकार ! दासी का नाम शांति है। मेरी अन्य बहिनें प्रणाम की आज्ञा चाहती है। " मीरा की इंगित करने पर सब समक्ष आ प्रणाम करती और शांति सबका नाम और काम बताती जाती।
मीरा को शांति का स्वर , जाना पहचाना सा लग रहा था। वह सोचने लगी कि" इसे कहाँ देखा है ?" और अचानक पुरातन स्मृति उभर आई और वह मन ही मन बोल उठी - " अरे , यह तो मेरी धाय माँ लग रही है । " शान्ति ...... तुम मेरी .....?"
मीरा ने वाक्य अधूरा छोड़कर ही शान्ति की तरफ़ देखा शान्ति स्वीकृति में सिर हिलाकर मुस्कुरा दी।
मीरा ने पूछा ," और काञ्चना ही मिथुला थी ?"
" हाँ सरकार !"
"तो क्या चमेली ,केसर , मंगला आदि सब..........?"
🌿 जी सरकार ! जब नित्यधाम से प्रभु अथवा परिकर में से कोई भी जगत के धरातल पर आता है तो उसे अकेला नहीं भेजा जाता ।दयामय प्रभु सहायकों के रूप में कई निज जनों को साथ भेजते हैं ।प्रधानता भले एक की रहे , परन्तु अन्तर्जगत से पूरा परिकर अवतरित होता है। उनसे जुड़कर संसार के हज़ारों जन कल्याण - पथगामी होते है। काञ्चना को अपनी स्वामिनी महादेवी वैदर्भी का वियोग दुस्सह था , अतः उसे शीघ्र बुला लेने की योजना थी। आठों पट्टमहिषियों ने आपको अपनी एक एक दासी सेवा सहायता के लिए प्रदान की। "
" और तुम ?" मीरा ने आश्चर्य से मुस्कराते हुए पूछा।
" मैं महादेवी जाम्बवती जी की सेविका हूँ। सरकार ....... यह आपका ही महल है और यह सब आपकी आज्ञा अनुवर्तिनी दासियाँ ।आप इन्हें आज्ञा प्रदान करने में तनिक भी संकोच न करें ।"
🌿 मीरा करूणासागर प्रभु की योजना , उनकी अपने भक्तों को पग पग पर संभालने की सोच से भावुक भी थी और आश्चर्य युक्त भी। फिर वह अपनी कृतज्ञता जताते हुई बोली ," शांति !! इस समस्त वैभव के साथ साथ तुम भी पट्टमहिषी का प्रसाद हो मेरे लिए। "
" धृष्टता क्षमा हो सरकार ! तो क्या ..... स्वामी भी .....? " शांति ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
🌿 " हाँ शांति ! जीव को जो भी मिलता है , भले प्रभु ही हों , सब कुछ देवी के अनुग्रह से ही प्राप्त होता है। " मीरा ने एक ही वाक्य में द्वारिका की महिषियों की अनुगत्यमयी प्रीति पूर्वक भक्ति का सार बताते हुए कहा ।
क्रमशः ............
|| मीरा चरित ||
(120)
क्रमशः से आगे .......
🌿 मीरा दिव्य द्वारिका में नव किशोरी स्वरूप में एक हिंडोले पर आसीन है। बहुत सी दासियाँ उसकी सेवा में उपस्थित है।
उसी समय द्वार पर प्रहरी ने पुकार की - " अखिल ब्रह्माण्ड नायक , यदुनाथ द्वारिकाधीश पधार रहे हैं !!!!!! "
🌿 एकाएक चारों ओर हलचल सी मच गई। दो दासियों ने मीरा से कक्ष में चलने की विनय की। वे जिस कक्ष में उन्हें ले गई , वहाँ सात्विकता की ही प्रधानता थी। कक्ष की पूर्ण साज-सज्जा श्वेत थी। केवल मीरा के वस्त्राभूषण ही भिन्न रंग के कारण चमक रहे थे।वहाँ शांत और सुखद प्रकाश था। पलंग पर टंगे श्वेत चंदोवें में मुक्ता की झालरें लटक रही थी। द्वार ,पलंग , भूमि और नाना उपकरण स्फटिक , हीरे और मोतियों से बने थे। श्वेत मल्लिका पुष्पों और बीचोंबीच गूँथे श्वेत कमल सम्पूर्ण कक्ष को सात्विक और सौरभमयी बना रहे थे ।दासियाँ प्रणाम कर बाहर चली गई तो मीरा स्तब्ध सी मन्त्रमुग्ध हो चारों ओर देखने लगी.............।
🌿 तभी द्वार - रक्षिका ने सावधान किया। वह चौंककर खड़ी हो गई। मीरा की दृष्टि द्वार पर उस भुवन वन्दनीय चरणों के स्वागत के लिए गड़ सी गई । उसके प्राण अपने प्राणप्रियतम के दर्शन पर बलिहार होने को आतुर ........। धीर मन्द गति से आते वे चरण अरविन्द द्वार पर थोड़ा थमे। मीरा अपलक नीचे दृष्टि किए अपने प्राणनाथ के चरणों के दर्शन कर अपने जन्मों की साध पूर्ण कर रही थी ।पदत्राण ( पादुकायें ) सम्भवतः द्वार पर सेविकाओं ने उतार लिए होंगे।जैसे ही प्रभु थोड़ा और सम्मुख बढ़े , मीरा के ह्रदय के आवेग , संकोच और लज्जा के द्वन्द ने उसकी साँस की गति बढ़ा दी और अब तुलसी , कमल , चन्दन ,केशर और अगुरू के सौरभ से मिश्रित देह सुगन्ध ने उसे अवश सा कर दिया । वह प्राणधन के चरण स्पर्श की चेष्टा में वह गिरने ही लगी थी कि सदा की आश्रय सबल बाहुओं ने संभाल लिया। कितने दिन , कितने मास , और कितने ही वर्ष प्रियतम का सामीप्य सुख सौभाग्य मीरा का स्वत्व बना , वह नहीं जान पाई ।जहाँ देश, काल दोनों ही सापेक्ष है , वहाँ यह गिनती नगण्य हो जाती है ..............
🌿 आँख खुली तो स्वयं को मीरा ने सागर तट पर पाया। वही पिघले नीलम सा उत्ताल लहरें लेता हुआ सागर और मीरा के ह्रदय में सुलगता हुआ वही विरह का दाह !!!!!
" बाईसा हुकम ! उषाकाल हो गया। पधारे अब ! आज रात्रि तो सबकी ठंडी हवा में यहीं आँख लग गई , पता ही नहीं लगा। " मंगला घुटनों के बल सम्मुख बैठकर कह रही थी।
🌿 " मैं तो द्वारिका में थी। यहाँ कैसे आ गई ? यह कौन सा देश है ?" मीरा ने व्याकुलता से इधर उधर देखते हुये कहा , जैसे पाँवो के तले से धरती ही खिसक गई हो !!
" यह द्वारिका ही है हुकम ! और मैं आपकी चरणदासी मंगला हूँ। अब पधारने की कृपा करें ! " मंगला ने बाहँ पकड़ कर उन्हें उठाया। ठण्डी रेत में बैठे बैठे पाँव अकड़ गये थे , उसने दबाकर उनकी जकड़न दूर की।
🌿 " मंगला मैं द्वारिकाधीश से , उनकी महारानियों से मिली। वहाँ का वैभव अतुलनीय है और पट्टमहिषी वैदर्भी का सौहार्द , स्नेह अपनत्व अकथनीय है। वह...... वह .... देश कैसा सुहावना है ........!" मीरा ने हल्के स्वर में कहना आरम्भ तो किया , पर अंत में वाक्य अधूरा छोड़कर वाणी ह्रदय में दिव्य द्वारिका, वहाँ के सुगंधित एवं संगीतमय वातावरण , स्नेहाभिसिक्त व्यवहार , वहाँ के अनुभव की सरसता में समा गयी ।
क्रमशः.............
|| मीरा चरित ||
(121)
क्रमशः से आगे ............
🌿 दिव्य द्वारिका के दर्शन के पश्चात मीरा के लिए स्वभाविक था कि उसी रस दर्शन की फिर से अनुभूति की लालसा रखना ,उसकी फिर से प्रतीक्षा करना । जैसे वृन्दावन में प्रायः वह नित्य ही रात्रि में दिव्य वृन्दावन के दर्शन करती थी , यहाँ भी प्रत्येक सूर्य अस्त के समय सागर तट पर खड़े मीरा को फिर से दिव्य द्वारिका के उस सुगन्धित वातावरण में प्रवेश पाने की प्रतीक्षा होती - पर सब कुछ तो ऐसा नहीं होता जैसा हम चाहते है। जहाँ इधर श्री द्वारिका धाम में मीराबाई पल-प्रति-पल विरह में उस क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी ,जब वह अपने जीवन धन प्राणाराध्य श्री द्वारिकाधीश का पुनः सानिध्य प्राप्त कर पायेगी ..........तो उधर व्यवहारिक जगत में मेड़ता और चित्तौड़ पर संकट के घनघोर बादल मँडरा रहे थे ।
🌿 मीराबाई के चित्तौड़ - परित्याग के बाद एक-न-एक संकट के बादल सामने आते ही रहे । बादशाह अकबर ने योजनाबद्ध रीति से चित्तौड़ पर हमला बोल दिया । अकबर का सैन्य बल अधिक होने से 1568 में चित्तौड किले पर मुग़ल आधिपत्य स्थापित हो गया । मेड़ता के राव जयमल चित्तौड किले की रक्षा हेतु लड़ते हुए अद्भुत वीरगति को प्राप्त हुए । किले पर से भगवा ध्वज के उतरते ही राजपूती गौरव धूलि-धूसरित हो गया । सुख - शांति - समृद्धि को दुःख-दरिद्रता-दीनता ने डस लिया ।किसी साधू के कहने पर जन-मानस में यह विचार तेजी से बुदबुदाने लगा कि भक्तिमति मेड़तणी कुँवराणीसा मीराबाई को सताये जाने का ही दुष्परिणाम हैं। अब तो यदि महिमामय मीराबाई वापिस मेवाड़ पधारे तो ही रूठे हुये देव संतुष्ट हों !!!
🌿 चित्तौड़ के राजपुरोहित जी के साथ राठौड़ों के पुरोहित , मेवाड़ के प्रथम श्रेणी के दो उमराव , जयमल जी के दोनों पुत्र हरिदास और रामदास और कई राठौड राणावत राजपूत सरदार एकत्रित हो एक दिन मीरा के निवास स्थान का पता पूछते हुए द्वारिका जी पँहुचे ।
🌿 मेवाड़ के राजपुरोहित जी ने मीराबाई को चित्तौड पर आई विपदा का चित्रण करते हुए बताया ," आप के वहाँ से आने के पश्चात धीरेधीरे राज्य में अकाल पड़ गया ।प्रजा दीन हीन एवं राजकोष रिक्त है ।बड़े - बूढ़ों को कहना है कि राज्य की यह अनर्थ कुँवरानीसा मेड़तणीजी को सताने और उनके चित्तौड़ परित्याग के कारण बिन न्यौता आया है। इसलिए मैं आपसे हाथ जोड़ निवदेन कर रहा हूँ कि आप वापिस पधारें तो मेवाड़ की धरा पुनः शस्य-श्यामला हो उठे ।" राजपुरोहित जी ने सिर से साफा उतारकर भूमि पर रखा - ''मेरी इस पाग की लाज आपके हाथ में हैं..... हमें सनाथ करें......हम आपके वहाँ से आ जाने से अनाथ हो गए हैं......। "
मेड़ते के राजपुरोहित उठकर कक्ष में गए।मीरा ने भूमि पर सिर रख उन्हें प्रणाम किया ।पुरोहित जी के साथ ही हरिसिंह जी और रामदास जी भी कक्ष में आये ।उन्होंने मीरा को प्रणाम किया । सबने आसन ग्रहण किया ।सबके मुख म्लान थे ।राजपुरोहित जी ने कहा - " बाईसा हुकम ! केवल आपका शवसुर कुल ही आपदाग्रस्त नहीं हैं, पितृकुल भी तितर-बितर हो गाया हैं। एक बार किसी साधू ने कहा था ,की मेवाड़ में किसी साधू के अपमान हुआ हैं जिसके कारण यह विपत्ति बरस पड़ी हैं।" महाराज ने भी हाथ जोड़कर प्रणाम के साथ अर्ज़-विनय की हैं।" आप वापिस पधारें तो सबकी विपत्ति दूर हो। "
पुरोहित जी महाराज !'' मीरा ने उदास दुखित स्वर में कहा - " मनुष्य केवल अपने ही कर्मो का फल पाता हैं। चित्तौड़ और मेड़ता की विपदगाथा सुनकर जी दुःखा ,किन्तु सच मानिये, यह मेरे कारण नहीं हुआ । मुझे कभी लगा ही नहीं कि कोई दुःख आया और आया भी हो, तो मुझे आँख उठाकर देखने का समय नहीं था , तब वह दुःख कैसे आया, किसके द्वारा आया , यह सब मुझे कैसे मालुम होता ? यह वहम आप दोनों ही ओर के महानुभाव अपने मन से निकाल दे ....और मेरे लौटने की बात कैसे संभव हैं ? कभी आप लोगो ने अपने ससुराल में सुख-पूर्वक रहती हुई अपनी बहिन-बेटी को कहा -" कि अब तुम पीहर चलो तो सब सुखी हो जायँ ? "
.....अब इस दिव्य भूमि पर, धाम में आकर कहीं लौटना होता हैं भाई ?" कहते हुए मीरा की आँखों से अश्रुबिंदु झलक पड़े।
🌿 '' हरिदास ! रामदास ! क्षत्राणी तलवार की भेंट चढ़ने के लिए ही पुत्र को जन्म देती हैं बेटा ....! तुम्हारे पिता ,काका, भाई युद्ध में मारे गए , इसमें अनोखी बात क्या हुई ? वीरों को जागतिक सुख नहीं ,अपना धर्म और कर्तव्य प्रिय होता हैं.... ! तुम्हारे पिता ने मुझसे अनेक बार युद्ध में वीरगति प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त की थी, तुम्हें तो अपने पिता पर गौरव होना चाहिए। "
🌿 "सम्यक कर्तव्य-पालन का सुख ही सच्चा सुख हैं , अन्यथा देह तो प्रारब्ध के अधीन हैं ।इसे तो वह सब सहना ही हैं ,जो उसका प्रारब्ध उसे दे.........राजपूत की जीवन-निधि धन-धरा-परिवार नहीं हैं ,ईमान ही उसका कर्तव्य हैं । अबलाओं की भाँति रोना क्षत्रिय को शोभा नहीं देता । उठों और प्रजा की सेवा में जुट जाओ, जिसके लिए तुम्हारा जन्म हुआ हैं !!!"
मीरा ने साथ चलने की बात को टालते हुए कहा ," कुछ दिन मुझे विचार करने का समय प्रदान करें ।तब तक आप सभी सरदार द्वारिकाधीश के दर्शन एवं सत्संग का लाभ उठावें । "
🌿 मीरा ने उन्हें कह तो दिया कि उसे सोचने का समय प्रदान करें पर उसके अन्तर्मन में एक तूफ़ान सा उठ खड़ा हुआ ।वह करूणावरूणालय भगवान को करूणा की दुहाई देने लगी...... "यहाँ तक आने के पश्चात मैं वापिस लौट जाऊँ ..... यूँ शरण में आये को लौटा देना तो आपका स्वभाव नहीं ठाकुर !!! फिर ऐसी परिस्थितियाँ क्यूँ उत्पन्न कर रहे हो , जो आपके स्वभाव में ही नहीं ....... मैं तो आपकी जन्म जन्म की दासी हूँ ......मुझे दिशा दिखाओ .....हे नाथ !."
🌿 मीरा करूणा की गुहार लगाते ह्रदय का क्रन्दन स्वरों में उड़ेलने लगी..........
🌿 करूणा सुनो ......श्याम मोरी,
मैं तो ....होये रही चेरी तोरी ....
क्रमशः ...............
|| मीरा चरित ||
(122)
क्रमशः से आगे .........
🌿 चित्तौड़ और मेड़ता के राजपुरोहितों के साथ मेवाड़ के उमराव, जयमल जी के दोनों पुत्र और कई राठौड़ राणावत राजपूत सरदार जब एकाएक मीरा को वापिस लिवाने के लिए द्वारिका पहुँच गये तो मीरा बैचैन हो उठी ।एकबार धाम में प्रवेश प्राप्त कर वापिस व्यवहारिक जगत में लौटने का सोचना भी सहज़ सम्भव नहीं है। मीरा मन ही मन में निश्चय करती हैं कि अब वापिस लौट कर नहीं जायेंगी । वह रो रो कर अपने आराध्य से प्रार्थना करने लगी - '' इतनी निष्ठुरता तुम में कहाँ से आ गयी हे दयाधाम ! क्यों मुझे अपने चरणों से दूर कर रहे हो ???....... बहुत भटकी हूँ ।अब तो इस देह में भटकने का दम भी नहीं रहा हैं। और न ही उन महलों के राजसी वैभव में बंद होकर व्यर्थ चर्चा में उलझने की हिम्मत हैं। अब मुझे अपने से दूर मत करो , मत करो ..............।''
🌿 रात्रि में अनायास ही किसी का स्पर्श पाकर वह जग पड़ी ।काञ्चना सम्मुख खड़ी थी । मीरा का मन उसे देख उत्साह से हुलस उठा ।उसने पूछना चाहा कि क्या महादेवी ने मुझे याद फरमाया हैं ,किन्तु आस-पास सोई हुई दासियों का विचार करके वह चुप रही ।वह काञ्चना का हाथ थामें हुए बाहर आयी ।घर के पीछे ही कुँआ और छोटी सी बगिया थी,वही आकर कांचना कुएँ की जगत पर बैठ गयी और मीरा को भी बैठने का संकेत किया ।
मुझे महादेवी रूक्मिणी ने भेजा हैं कि आपको मैं आपके पिछले जन्म का वृत्तान्त बता दूँ , जिससे आपकी घबराहट, दुःख कुछ कम हो जाये ।''
......मीरा ने मौन दृष्टि से उसकी ओर देखा ।
🌿 "आप व्रजकुल की माधवी हैं।'' उसने मीरा की ओर देखा ।उसका अभिप्राय समझकर मीरा ने स्वीकृति में सिर हिला दिया ।काञ्चना आगे बतलाने लगी - '' सूर्यग्रहण के समय जब समस्त ब्रजवासी ,बाबा ,मैया के साथ देवी वृषभानुजा श्री राधारानी कुरुक्षेत्र पधारी , तब उनके साथ आप भी थी । कुछ समय कुरुक्षेत्र में रहकर सम्पूर्ण व्रज-शिविर को साथ लिये-लिये प्रभु द्वारिका पधारे ।जहाँ अभी गोपी तलाई का स्थान हैं, वहीं सभी जन ठहरे । देवी वृषभानुजा , उनकी सखियाँ , गोपालों और व्रज के जन-जन का अनन्य प्रेम और असीम सरलता देखकर द्वारिका के लोग और महारानियाँ मन-ही-मन न्यौछावर थी । वे एक-एक दिन अपने यहाँ सबको प्रीति भोज के लिये आमन्त्रित करना चाहती थी , परन्तु संख्या की बहुलता के कारण सम्भव नहीं लगता था , अतः यह निश्चित हुआ कि सर्वप्रथम एक-एक दिन आठों पटरानियाँ भोजन का आयोजन करे ,एक दिन महाराज उग्रसेन और कुछ दिन ऐसे ही प्रधान-प्रधान सामंतो के यहाँ ।अंत में सौ-सौ महारानियाँ मिलकर एक-एक दिन भोजन का आयोजन करे ।निश्चय के अनुसार ही बृजवासियों का भोजन और स्नेहाभिसिक्त स्वागत सत्कार हुआ ।
🌿 श्री किशोरी जू के शील, सदाचार ,सरलता और सौन्दर्य पर महारानी वैदर्भी जी ऐसे मुग्ध हुई, जैसे अपने ही प्राणों के साथ देह का लगाव होता हैं। वे बार-बार उन्हें आमंत्रित करती ,अपने ही सुकुमार हाथो से रंधन कार्य करती और अतिशय प्रेम एवं अपार आत्मीयता पूर्वक अपने हाथों से जिमाती । कभी-कभी दोनों एक ही थाली में भोजन करती और प्रभु की बातें चर्चा करते हुए ऐसी घुल-मिल जाती कि लगता जैसे दो सहोदरा बहिनें बहुत काल पश्चात मिली हो । भानुनन्दिनी अकेली नहीं पधारतीं थीं, उनके साथ दो-चार सखियाँ अवश्य ही होतीं । एक बार उनके साथ आप भी पधारी थीं । द्वारिकाधीश की पट्टमहादेवी साक्षात लक्ष्मीरुपा वैदर्भी के महल का असीम ऐशवर्य और अतुल वैभव देखकर एक-दो क्षण के लिए आपके मन में भी उस वैभावानंद की सुखानुभूति प्राप्त करने की और द्वारिकाधीश की महारानी बनने की स्फुरणा उभरी । थोड़ी ही देर में वह सब भूल कर आप श्री किशोरी जू के साथ वापिस व्रज-शिविर में लौट गयीं , किन्तु काल के अनंत विस्तीर्ण अंक में आपका वह संकल्प जड़ित हो गया ।अपनी उस अभिलाषा की पूर्ति की एक झाँकी आप कुछ दिन पूर्व पा चुकी हैं ।अब जो यत्किंचित आपकी अकांक्षा शेष बाकी रही है , वह प्रसाद भी पाकर आप शीघ्र ही किशोरी जू की नित्य सेवा में दिव्य वृन्दावन में पधार जायेंगी ।"
🌿 मीरा ,पलकें झुकाए अपने पूर्व जन्म का वृतान्त और अपनी क्षणिक अभिलाषा का ब्यौरा श्रवण कर रही थी ।उसकी आँखों से धीरेधीरे स्त्रवित होती हुई अश्रुओं की धारा उसके वस्त्रों को भिगो रही थी ।पर थोड़ी हिम्मत जुटा कर मीरा ने रूँधे कण्ठ से पूछा ," क्या मुझे द्वारिका से मेवाड़ लौटना होगा ??
...........अब मैं इस देह को और नहीं रखना चाहती ।इस देह के रहने से , इसके सम्बन्धों से ही ये जंजाल उठ खड़े हो रहे हैं ।"
🌿 '' नहीं अब विलम्ब नहीं ।कुल ......बस पांच-सात दिन और ।" कांचना मुस्कुराई – ' आप दिव्य द्वारिका के सच्चिदानन्द महल में पधार जायेंगी ।.... किन्तु देह नहीं छूटेगी ,केवल आपका स्वरूप ही परिवर्तित होगा ....।यही समाचार देने मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूँ । अब आज्ञा हो ।'' ......कहते हुए काञ्चना उठ खड़ी हुई ।
🌿 मीरा ने उठकर काञ्चना के दोनों हाथ थाम लिये - '' महादेवी रूक्मिणी बहिन के चरणों में मेरी ओर से प्रणाम निवेदन करना ।बड़ी कृपा की, जो तुम आ गयी काञ्चना ! तुम्हारे आगमन से ह्रदय को शीतलता मिली ,जैसे जले घाव पर शीतल लेप लगा हो .....अब ह्रदय में कोई दुविधा नहीं ....सब स्वच्छ और दूर तक नज़र आ रहा है ।"
" सभी महारानियों को और प्रभु को मेरा प्रणाम निवेदन करना ।" मीरा ने शांत स्वर से कहा।
🌿 प्रणाम करके काञ्चना चल दी। कुछ दूर तक उसकी देह का प्रकाश और झिलमिलाते हुये पीत वस्त्र दिखलायी देते रहे , फिर वह लोप हो गई। मीरा धीमे और छोटे पग भरती अपने कक्ष में वापिस लौट आई..... उसका मन चाहे शांत था - बहुत से प्रश्नों का समाधान हो गया था , पर फिर भी जीव की अपूर्ण और स्वभाविक अभिलाषाओं का चिन्तन कर और उनकी पूर्ति के लिए करूणापूर्ण प्रभु की चेष्टा का मनन कर वह आश्चर्यचकित भी थी।
क्रमशः ................
|| मीरा चरित ||
(123)
क्रमशः से आगे .........
🌿 मीरा ने पाँच -छः दिन तक कोई भी ठोस उत्तर राजपुरोहित जी को नहीं दिया। वह तो काञ्चना के द्वारा इंगित किए गए उस प्रतीक्षित पल की बाट जोह रही थी ।उसे कभी भी वापिस चित्तौड़ लौटकर जाना ही नहीं था - वह तो ऐसे ही कुछ दिन और बिता रही थी । पर राजपुरोहित जी को जब कोई अनुकूल उत्तर नहीं मिला तो उन्होंने अनशन करने का निश्चय कर लिया ।राठौड़ों के पुरोहित जी भी उनके समीप साथ देने बैठ गये।
अनशन की बात सुनकर मीरा ने कई प्रकार से उन्हें समझाने का प्रयत्न किया , पर उन्होंने रीते हाथ लौटने की अपेक्षा मरना श्रेयस्कर समझा ।दो दिन और निकल गये ।ब्राह्मणों को यूँ भूखे मरते देख वह व्याकुल हो उठी। अंत में मीरा ने उन्हें आश्वासन दिया - " मैं प्रभु से पूछ लूँ ।वे आज्ञा दे देंगें तो मैं आपके साथ चलूँगी। "
🌿 उस समय द्वारिकाधीश की मंगला आरती हो चुकी थी और पुजारी जी द्वार के पास खड़े थे। दर्शनार्थी दर्शन करते हुये आ जा रहे थे ।राणावतों और मेड़तियों के साथ मीरा मंदिर के परिसर में पहुँची ।मीरा ने प्रभु को प्रणाम किया ।पुजारी जी मीरा को पहचानते थे और उन्हें यह विदित था कि इन्हें लिवाने के लिए मेवाड़ के बड़े बड़े सामन्तों सहित राजपुरोहित आयें है ।चरणामृत और तुलसी देते हुये उन्होंने पूछा - " क्या निश्चित किया ? क्या जाने का निश्चय कर लिया है ? आपके बिना द्वारिका सूनी हो जायेगी ।"
" हाँजी महाराज ! वही निश्चित नहीं कर पा रही !! अगर आप आज्ञा दें तो भीतर जाकर प्रभु से ही पूछ लूँ !!!"
" हाँ हाँ !! पधारो बा !! आपके लिए मन्दिर के भीतर जाने में कोई भी बाधा नहीं !!!" पुजारी जी ने अतिशय सम्मान से कहा।
🌿पुजारी जी की आज्ञा ले मीरा मन्दिर के गर्भगृह में गई ।ह्रदय से प्रभु को प्रणाम कर मीरा इकतारा हाथ में ले वह गाने लगी........
🌿 मीरा को प्रभु .........
साँची दासी बनाओ......... ।🌿
🌿अंतिम पंक्ति गाने से पूर्व मीरा ने इकतारा मंगला के हाथ में थमाया और गाती हुईं धीमें पदों से गर्भ गृह के भीतर वह ठाकुर जी के समक्ष जा खड़ी हुईं। वह एकटक द्वारिकाधीश को निहारती बार बार गा रही थी - " मिल बिछुरन मत कीजे ।" एकाएक मीरा ने देखा कि उसके समक्ष विग्रह नहीं ब्लकि स्वयं द्वारिकाधीश वर के वेश में खड़े मुस्कुरा रहे है। मीरा अपने प्राणप्रियतम के चरण स्पर्श के लिए जैसे ही झुकी , दुष्टों का नाश , भक्तों को दुलार , शरणागतों को अभय और ब्रह्माण्ड का पालन करने वाली सशक्त भुजाओं ने आर्त ,विह्वल और शरण माँगती हुई अपनी प्रिया को बन्धन में समेट लिया ।क्षण मात्र के लिए एक अभूतपूर्व प्रकाश प्रकट हुआ , मानों सूर्य - चन्द्र एक साथ अपने पूरे तेज़ के साथ उदित होकर अस्त हो गये हों ।इसी प्रकाश में प्रेमदीवानी मीरा समा गई ।उसी समय मंदिर के सारे घंटे - घड़ियाल और शंख स्वयं ज़ोर ज़ोर से एक साथ बज उठे। कई क्षण तक वहाँ पर खड़े लोगों की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ ।
🌿 एकाएक चमेली " बाईसा हुकम " पुकारती मंदिर के गर्भ गृह की ओर दौड़ी। पुजारी जी ने सचेत होकर हाथ के संकेत से उसे रोका और स्वयं गर्भ गृह में गये ।उनकी दृष्टि चारों ओर मीरा को ढूँढ रही थी ।अचानक प्रभु के पाशर्व में लटकता भगवा - वस्त्र खंड दिखाई दिया। वह मीरा की ओढ़नी का छोर था। लपक कर उन्होंने उसे हाथ में लिया ।पर मीरा कहीं भी मन्दिर में दिखाई नहीं दी ।निराशा के भाव से भावित हुए पुजारी ने गर्भ गृह से बाहर आकर न करते हुए सिर हिला दिया। उनका संकेत समझ सब हतोत्साहित एवं निराश हो गये ।
🌿 " यह कैसे सम्भव है ? अभी तो हमारे सामने उन्होंने गाते हुये गर्भ गृह में प्रवेश किया है ।भीतर नहीं हैं तो फिर कहाँ है ? हम मेवाड़ जाकर क्या उत्तर देंगें। " - वीर सामन्त बोल उठे ।
" मैं भी तो आपके साथ ही बाहर था ।मैं कैसे बताऊँ कि वह कहाँ गई ? स्थिति से तो यही स्पष्ट है कि मीरा बाई प्रभु में समा गई , उनके विग्रह में लीन हो गई। " पुजारी जी ने उत्तर दिया।
🌿 पर चित्तौड़ और मेड़ता के वीरों ने पुजारी जी की आज्ञा ले स्वयं गर्भ गृह के भीतर प्रवेश किया। दोनों पुरोहितों ने मूर्ति के चारों ओर घूम कर मीरा को ढूँढने का प्रयास किया ।सामन्तों ने दीवारों को ठोंका , फर्श को भी बजाकर देखा कि कहीं नीचे से नर्म तो नहीं !! अंत में जब निराश होकर बाहर निकलने लगे तो पुजारी ने कहा ," आपको बा की ओढ़नी का पल्ला नहीं दिखता , अरे बा प्रभु में समा गई है। "
दोनों पुरोहितों ने पल्ले को अच्छी तरह से देखा और खींचा भी , पर वह तनिक भी खिसका नहीं , तब वह हताश हो बाहर आ गये ।
🌿इस समय तक ढोल - नगारे बजने आरम्भ हो गये थे ।पुजारी जी ने भुजा उठाकर जयघोष किया - " बोल , मीरा माँ की जय ! द्वारिकाधीश की जय !! भक्त और भगवान की जय !!! " लोगों ने जयघोष दोहराया ।
🌿 तीनों दासियों का रूदन वेग मानों बाँध तोड़कर बह पड़ा हो। अपनी आँखें पौंछते हुये दोनों पुरोहित उन्हें सान्तवना दे रहे थे ।इस प्रकार मेड़ता और चित्तौड़ की मूर्तिमंत गरिमा अपने अराध्य में जा समायी।
🌿 नृत्यत नुपूर बाँधि के गावत ले करतार,
देखत ही हरि में मिली तृण सम गनि संसार ॥
मीरा को निज लीन किय नागर नन्दकिशोर ,
जग प्रतीत हित नाथ मुख रह्यो चुनरी छोर ॥
🌾॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥🌾
🙏🏼🌹मीरा चरित सम्पूर्णम्🌹🙏🏼
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🙏🏼🌹 राधे राधे 🌹🙏🏼
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✍🏽 WhatsApp या Facebook पर मीरा चरित का यह जो प्रसंग आता है, भाग 1 से लेकर भाग 123 तक, यह संक्षेप में है। जो मुख्य रूप से पुस्तक से लेकर लिखा गया है। लेकिन पुस्तक में और विस्तार से लिखा हुआ है और भी बहुत सारे प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे, जो कि बहुत ही रोचक है, भावुक कर देने वाला प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे। इसलिए निवेदन है कि मीरा चरित पुस्तक जरूर पढ़ें। और यदि आप पुस्तक मंगवाना चाहते हैं तो आप इस पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।
श्री राधे....
