मीरा चरित भाग 114 से भाग 118 तक
|| श्रीकृष्ण ||
|| मीरा चरित ||
(114)
क्रमशः से आगे .............
🌿 द्वारिका में , मीरा का श्री कृष्ण दर्शन के लिए विरह दिन प्रतिदिन बढ़ने से उनकी दासियाँ मीरा की असमान्य शारीरिक स्थिति को ले अत्यंत चिन्तित थी। एक दिन एक साँवरे नवकिशोर योगी के स्पर्श से और मन्त्र उच्चारण से मीरा स्वस्थता लाभ करती है ।मीरा को जोगी की हँसी और छवि में ठाकुर जी की ही अनुभूति होती है।
🌿 मीरा के पूछने पर जोगी सज़ग होकर बोला ," देवी ! मेरी सूरत आपके स्वामी से मिलती है , पर मैं वह नहीं ! यह तो माया एवं आपका प्रेम है देवी, जो आपको सर्वत्र प्रभु ही दिखाई देते है। पर , एक बात है कि आप सचमुच ही बडभागी हैं । आपकी व्याकुलता ने प्रभु को व्यथित कर दिया हैं । वे आपसे मिलने को वैसे ही व्याकुल हैं, जैसे आप व्याकुल हो रही हैं ।वे सर्वेश्वर, दयाधाम अपने जनों की पीड़ा सह नहीं पाते।'' कहते-कहते यति की आँखे भर आयी।
"आप..........आप कौन हैं......... मेरे उपकारी ??'' मीरा ने चकित, दुखित, पर प्रसन्न स्वर में पूछा ।
'' मैं उनका निजी सेवक .....!!.... प्रभु ने आपके लिए सन्देश पठाया हैं। '
'' क्या ? क्या कहा मेरे स्वामी ने ?............ क्या फरमाया हैं ? मेरे लिए कोई आदेश दिया है क्या प्रभु ने ? ''........कहते ही मीरा की आँखों से अश्रुधारा बह निकली । और कहा - '' क्या कहूँ ! मुझ अभागिन से उनकी आज्ञा का पालन पूरी तरह से नहीं हो पा रहा। मैं उनका वियोग प्रसन्न मन से नहीं झेल पा रही। निश्चय तो यही किया था कि जब स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य की तो मुझे उसे प्रसन्न मुद्रा से निभाना भी चाहिए , पर बताओ , विरह में कैसे कोई प्रसन्न रह सकता है ?? पर...... मेरी बात छोड़े ....... मुझे कहिये , क्या सन्देश हैं प्रियतम का ? .....वे यदि न आना चाहे ,आने में कोई कष्ट हो ...........,बाधा हो तो कभी न आये ......मैं ऐसे ही जीवन के दिन पूरे कर लूँगी....... और फिर जीवन होता ही कितना हैं ??"
🌿 मीरा ने यति से स्नानकर प्रसाद पाने की प्रार्थना की ।और पीछे खड़े हुए सेवक वर्ग की ओर देख कर बोली - '' ये सब भी न जाने मेरी चिन्ता में कब से उपवास कर रहे हैं।"
मीरा एकदम से उठने लगी तो दोनों ओर से केसर और मंगला ने थाम लिया । चमेली शीघ्रतापूर्वक रसोई में चली गयी और किशन यति की सेवा में लगा । भोजन विश्राम के पश्चात मीरा ने यति के चरणों में प्रणाम किया - '' देव ! आप जो भी हो , आपने मुझे सांत्वना प्रदान की हैं। आप मेरे पति का सन्देश लेकर पधारे हैं, अतः आप मेरे पूज्य हैं। यधपि मेरे प्राण मेरे प्रियतम का सन्देश सुनने को आकुल हैं , फिर भी कोई सेवा स्वीकार करने की कृपा करे तो सेविका कृतार्थ होगी। ''
''सेवक की क्या सेवा देवी .......? स्वामी की प्रसन्नता ही उसका वेतन भी हैं और सेवा ही व्यसन ! आपकी यदि कोई इच्छा हो तो पूर्ण कर मैं स्वयं को बड़भागी अनुभव करूँगा ।''
अंधे को क्या चाहिये भगवन ! दो आँखे और चातक क्या चाहे - दो बूंद स्वाति जल !! मेरे आराध्य की चर्चा कर मुझे शीतलता प्रदान करे । क्या प्रभु कभी इस सेविका को याद करते हैं ?......क्या कभी दर्शन देकर कृतार्थ करने की चर्चा भी करते हैं?......आप तो उनके अन्तरंग सेवक जान पड़ते हैं, अतः आपको अवश्य ज्ञात होगा कि उनको कैसे प्रसन्नता प्राप्त होती हैं ? उन्हें क्या रुचता हैं ? कैसे जन उन्हें प्रिय हैं ?? उनका स्वरुप, आभूषण वस्त्र..,उनकी पहनिया (पादुकायें ) ..... उनकी क्रियायें.......उनका हँसना - बोलना ......, भोजन क्या कहूँ उससे सम्बंधित प्रत्येक चर्चा मुझे मधुर पेय-सी लगती हैं - कि जिससे कभी पेट न भरे.....यह पिपासा कभी शांत नहीं होती। कृपा कर बस आप उनकी ही बात सुनाये । "
🌿 " देवी ! आपका नाम लेकर मेरे स्वामी एकांत में भी विह्वल हो जाते हैं। उनके वे कमलपत्र से दो नयन भर जाते हैं , कभी-कभी उनसे अश्रु मुक्ता भी ढलक पड़तें हैं। केवल लोक - कल्याण के लिए ही आपको परस्पर वियोग सहना पड़ रहा हैं।''
" मैं तो कोई लॊक-कल्याण नहीं करती योगीराज ! मुझे तो आपनी ही व्यथा से अवकाश नहीं हैं। औरों का भला मैं क्या कर पाऊँगी ।"
🌿 यति ने मधुर स्वर में कहा - " आप नहीं जानती पर आपकी इस देह से भक्ति भाव-परमाणु विकीर्ण होते हैं। वे ही कल्याण करते हैं। जो आपके पास आते हैं, आपका दर्शन करते हैं, सेवा करते हैं, संभाषण करते हैं, उन सबका कल्याण निश्चित हैं।।आप जिस स्थान का स्पर्श करती हैं, जहाँ थोड़ी देर के लिए भी निवास किया हो , वह स्थान इतना पवित्र हो जाता हैं, कि इसके स्पर्श मात्र से ही लोगो में भगवत्स्मृति जाग्रत हो जाएगी ।'
🌿 मीरा ने उन प्रशंसा पूर्ण शब्दों पर ध्यान न देते हुए सहज जिज्ञासा से यति से पूछा ," कोई ऐसा दिन आयेगा कि प्रभु मुझे दर्शन देने पधारेंगे ??? "कहते ही मीरा का गला भर आया और..... और रूँधे हुये कण्ठ से बोली....." मैं अपने विवाह के समय का उनका वह रूप भूल नहीं पाती । उसके बाद तो केवल एक बार ही दर्शन पा सकी ।सारी आयु रोते कलपते ही बीत गयी महाराज !" कहने के साथ ही नेत्रों से आँसुओ की झरी लग गयी
🌿 "क्या कहूँ...... विधाता की गति जानी नहीं जाती । विधाता ने हिरण को इतने दीर्घ ,सुन्दर कजरारे नेत्र तो दिये लेकिन उनका उस वन में क्या प्रयोजन ? बगुले का श्वेत उज्जवल वर्ण होता है तो उसकी कण्ठ ध्वनि विचित्र सी होती है और कोयल चाहे काली होती है पर उसका कण्ठ कितना मधुर होता है ! इसी तरह नदी का जल मीठा और निर्मल रहता है तो समुद्र का जल विस्तृत पर खारा होता है! यह तो प्रारब्ध के खेल है कि किसके भाग्य में क्या आता है ? कहीं तो मूर्ख को भी इतना सम्मान और यश मिलता है और कहीं विद्वान को हाथ फैलाना पड़ता है ! इसी तरह महाराज मेरी भक्ति , कीर्ति का मेरे लिए उसका क्या प्रयोजन , जब मेरे प्रभु ने ही अभी मेरी भक्ति को स्वीकार नहीं किया !!!"
🌿 राम कहिए, गोबिंद कहिये मेरे.....
....राम कहिए, गोबिंद कहिये मेरे।
🌿संतो कर्म की गति न्यारी
..संतो
बड़े बड़े नयन दिए मृगनको,
बन बन फिरत उठारी।
🌿उज्जवल बरन दीनि बगलन को,
कोयल करती निठारी।
संतो करम की गति न्यारी...
🌿और नदी पण जल निर्मल कीनी
समुंद्र कर दिनी खारी..
.संतो कर्म की गति न्यारी...
🌿मुर्ख को तुम राज दीयत हो,
पंडित फिरत भिखारी..
संतो कर्म की गति न्यारी.....संतो।।
क्रमशः ..............
|| मीरा चरित ||
(115)
क्रमशः से आगे ............
🌿 इक साँवला नव किशोर यति जिसने स्वयं को श्री द्वारिकाधीश का निज सेवक बताया , उसके आने से मीरा थोड़ा प्रसन्नचित्त दिखाई देने लगी। वह जोगी , मीरा के प्रति ठाकुर जी का विरह वर्णन करता जाता था और मीरा भी प्रभु की अन्तरंग वार्ता श्रवण कर हर्ष-विह्वल हो रही थी।
🌿 जोगी मीरा को द्वारिका धीश का संदेश देते कहने लगा ," क्या कहूँ देवी ! आपको देखकर ही स्वामी की आकुलता समझ में आती हैं ।आप तो उनके ह्रदय में विराजती हैं। आप चिंता त्याग दें !! प्रभु आपको अपनाने शीघ्र ही पधारेंगे..और फिर उनसे कभी वियोग नहीं होगा ।मुझे उन्होंने आपके लिए यही संदेश देकर भेजा हैं।" योगिराज ने मीरा को सांत्वना देते हुये कहा ।
मीरा प्रभु का स्नेह से परिपूर्ण सन्देश सुन हर्ष से विहवल हो उठी । कितने ही दिनों के पश्चात वह प्रसन्नता से पाँव में नुपुर बाँधकर, करताल ले नृत्य करने लगी। मीरा के प्रसन्न ह्रदय की फुहार ने उसके रचित पद की शब्दावली को भी आनन्द से भिगो दिया ........
🌿सुरण्या री म्हें तो ' हरि आवेंगे आज ।
मेहलाँ चढ़चढ़ जोवाँ सजनी कब आवें महाराज।।
दादुर मोर पपीहा बोले कोयल मधुराँ साज ।
उमड्यो इन्द्र चहूँ दिश बरसे दामन छोड्या लाज।।
धरती रूप नव-नव धार्या इंद्र मिलण रे काज।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बेग मिलो महाराज ।।
🌿 यति और दासियाँ मीरा को यूँ प्रसन्न देख आनन्दित हुये । जब-जब यति जाने की इच्छा प्रकट करता तो मीरा चरण पकड़कर रोक लेती - " कुछ दिन और मेरे प्यासे कर्णो में प्रभु की वार्ता रस सुधा-सिंचन की कृपा करें !! "
..........और मीरा के अश्रु भीगे आग्रह से बंधकर योगी भी ठहर जाते ।मीरा ने एक बार भी उनसे उनका नाम, गावं या काम नहीं पूछा, केवल बारम्बार प्रभु के रूप-गुणों की चर्चा सुनाने का अनुरोध करती ,जिसकी एक-एक सुधा-बूँद शुष्क भूमि-सा प्यासा उसका ह्रदय सोख जाता । वह बार-बार पूछती ," कभी प्रभु अपने मुखारविंद से मेरा नाम लेते हैं ?? कभी उनके रसपूर्ण प्रवाल अधरों पर मुझ विरहिणी का नाम भी आता हैं:?? वे मुझे किस नाम से याद करते हैं योगिराज ?? सबकी तरह मीरा ही कहते हैं कि ........!"
🌿 '' देवी ! वे आपको मीरा कहकर ही स्मरण करते हैं। जैसे आप उनकी चर्चा करते नहीं अघाती ( थकती ) ,वैसे ही कभी-कभी तो हमें लगता हैं कि प्रभु को आपकी चर्चा करने का व्यसन हो गया हैं । वे जैसे ही अपने अन्तरंग जनों के बीच एकांत में होते हैं , आपकी बात आरम्भ कर देते हैं। देवी वैदर्भी ने तो कई बार आग्रह किया आपको बुला लेने के लिए अथवा प्रभु को स्वयं पधारने के लिये ।"
🌿 सच कहते हैं भगवन ? प्रभु के पाटलवर्ण उन सुकोमल अधरों पर दासी का नाम आया ?' कहकर, जैसे वे स्वयं प्रभु हो , धीरे से अपने नाम का उच्चारण करती - ' म़ी....... रा ।' मीरा फिर कहती - ' भाग्यवान अक्षरों ! तुम धन्य हो !! तुमने मेरे प्राणधन के होठों का स्पर्श पाया हैं !! स्पर्श पाया हैं उनकी मुख वायु का !! कहो तो , किस तपस्या से , किस पुण्य बल से तुमने यह अचिन्त्य सौभाग्य पाया ? ओ भाग्यवान वर्णों ! वह राजहंस सम धवल ( श्वेत ) पांचजन्य ही जानता हैं उन अधरों का रस ...... इसलिए तो मुखर पांचजन्य उस सुधा - मधुरिमा का जयघोष करता रहता हैं यदा-कदा । "........वह हंसकर कहती और नेत्र बंद कर मुग्धा-सी धीरे-धीरे अपना ही नाम उच्चारण करने लगती । मीरा की वह भावमग्न दशा देखकर योगी उसकी चरण-रज पर मस्तक रख देते ,उनकी ( यति ) आँखों से निकले आँसुओं से वह स्थान भीग जाता ।
🌿 वह दिन आ गया जब योगी ने जाने का निश्चय कर अपना झोली - डंडा उठाया ।मीरा उन्हें रोकते हुए व्याकुल हो उठी - '' आपके पधारने से मुझे बहुत शान्ति मिली योगीराज ! अब आप भी जाने को कहते हैं ,तब प्राणों को कैसे शीतलता दे पाऊँगी । आप ना जाये प्रभु !! न जाये !! "
एक क्षण में ही मानो जैसे आकाश में विद्युत दमकी हो ......ऐसे ही योगी के स्थान पर द्वारिकाधीश हँसते खड़े दिखलाई दिये..... और दूसरे ही क्षण अलोप!!!!!
मीरा व्याकुल हो उठी ........
🌿जोगी मत जा.....मत जा....
मत जा .......जोगी ......
पाँय परु मैं तेरे.........
मत जा......... जोगी....
🌿 प्रेम भक्ति को पेंडों ही न्यारो,
हमकूँ गैल बता जा ......
🌿अगर चन्दन की चिता बणाऊँ,
अपने हाथ जला जा........
🌿जल बल होय भस्म की ढेरी,
अपणे अंग लगा जा ......
🌿मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
जोत में जोत मिला जा ......
मत जा......मत जा......
मत जा...... जोगी.......
क्रमशः ............
|| मीरा चरित ||
(116)
क्रमशः से आगे ............
🌿 यति के वेश में श्री द्वारिकाधीश के दर्शन कर और अगले ही क्षण उनके आलोप हो जाने से व्याकुल मीरा रात दिन सोचती - " कितने ही दिन प्रभु के साथ रही, पर मैं अभागिन उन्हें पहचान नहीं पाई। उन्हें योगी समझकर दूर दूर ही रही। अच्छे से उनके चरणों में शीश भी नहीं निवाया। हे ठाकुर ! करूणा भी करने आये थे तो वह भी छल से.....! अगर स्वयं को प्रकट कर देते तो प्रभु आपकी करूणा में कुछ कमी हो जाती - " वह रोते रोते निहोरा देने लगी ।फिर मीरा के भाव ने करवट बदली और स्वयं की प्रीति में ही कमी पा कर बोली ," हा ! कहतें है कि सच्चा प्रेम तो अंधेरी रात में सौ पर्दों के पीछे भी अपने प्रेमास्पद को पहचान लेता है ।पर मुझ अभागिन में प्रेम होता तो उन्हें पहचानती न ? मुझमें प्रेम पाते तो वह योगी होने का नाटक क्यों करते ?अब मैं क्या करूँ , उन्हें कैसे पाऊँ ? क्या योगी भी एक स्थान पर अधिक देर तक कभी रूककर किसी के अपने हो पायें है ? "
🌿 जोगिया से प्रीत कियाँ दुख होई ।
प्रीत कियाँ सुख न मोरी सजनी जोगी मीत न होई।
रातदिवस कल नहिं परत है तुम मिलियाँ बिन मोई॥
ऐसी सूरत याँ जग माँही फेरि न देखि सोई।
मीरा रे प्रभु कब रे मिलोगे मिलियाँ आनन्द होई ॥
🌿 पूर्णिमा की उज्ज्वल रात्रि है। समुद्र के ज्वार को उमड़ते हुये देख मीरा उससे बातें करने लगी - " हे सागर ! तेरी दशा भी मुझ जैसी ही है।तू कितना भी उमड़े ,उत्ताल लहरें ले ,किन्तु चन्द्र तक की दूरी तय करना तेरे बस की बात नहीं - इसी तरह ,मेरे भी प्राणनाथ मुझसे दूर जा बसे हैं। मैं गुणहीन उन्हें कैसे रिझाऊँ ? पता नहीं , वह धाम कहाँ है जहाँ मेरे प्रभु विराजते है ?"
🌿 मीरा गम्भीर रात्रि में एकटक सागर की तरफ़ देखती रहती - " हे महाभाग्यवान रत्नाकर ! तुम स्वामी को कितने प्रिय हो ? ससुराल होने पर भी वह स्थाई रूप से तुम्हारे यहाँ ही रहना पसन्द करते हैं । इतना ही मानों पर्याप्त न हो , द्वारिका भी तुम्हारे ही बीच बसाई ।अपने प्रभु के प्रति तुम्हारा प्रेम असीमित है। सदा उनसे मिले होने पर भी तुम उनके मधुर नामों का गुणगान करते रहते हो। अहा ! मधुर नाम कीर्तन करते करते , उनके श्यामल स्वरूप का दर्शन करते करते तुम स्वयं उसी वर्ण के हो गये हो !!! तुम धन्य हो ,जो अपने प्रभु के रंग में रच बस गये हो , और मैं अभागिनी अपने प्रियतम के दर्शन से भी वंचित हूँ ।क्या तुम मेरा संदेश मेरे स्वामी तक पहुँचा दोगे ?"
🌿 " उनसे कहना कि एक दिन एक सुन्दर ,सुकुमार किशोर एक दिन ज़रीदार केसरिया वस्त्रों से सुशोभित अपने श्याम कर्ण अश्व पर सवार होकर मेरे पिता के द्वार पर आया था। मण्डप में बैठकर मेरे पिता ने उसके हाथ में मेरा कन्यादान किया। जब एकान्त कक्ष में मैंने उनके दर्शन किए तो..... वह रूप...... वह छवि उसका कैसे वर्णन करूँ ? हे सागर ! तुम्हारी तो फिर भी कोई सीमा ,कोई थाह होगी पर उनके रूप माधुर्य को किसी परिधि किसी उपमा में नहीं बाँधा जा सकता। क्या तुमने उनकी वे रतनारी अखियाँ देखी है ? क्या कभी उस अणियारी चितवन के तुमने दर्शन किये है ? क्या कहा ?? उसी चितवन से ही घायल हो कर रात्रि पर्यन्त हाहाकार करते हो ? सत्य कहते हो भैया !! उनकी मुस्कान से अधिक क्रूर कोई बधिक ( शिकारी ) नहीं सुना जाना ।इनकी चितवन की छुरी भी ऐसी जो उल्टी धार की - कि जो कण्ठ पर चलती ही रहे , छटपटाते युग बीत जायें ,पर न बलि - पशु मरे और न छुरी रूके ............ कहो तो यह कैसा व्यापार है ?"
🌿 " हाँ ....तो मैं तुम्हें बता रही थी कि मैं तो अभी उस रूप माधुरी की मात्र झाँकी ही कर पाई थी कि मुझे अथाह वियोग में ढकेल , मेरे प्रियतम , मेरे हथलेवे का चिन्ह , मेरी माँग का सिन्दूर सब न जाने कहाँ अन्तर्हित हो गये। हे रत्नाकर ! तुम उनसे कहना , मैं तबसे उस चितचोर की राह देख रही हूँ ! मेरा वह किशोर ,सुन्दर शरीर आयु के प्रहार से जर्जर हो गया है ,मेरे घुटनों तक लम्बे कृष्ण केश सफ़ेद हो गये है ,किन्तु आज भी मेरा मन उसी भोली किशोरी की भाँति अपने पति से मिलने की आशा संजोयें बैठा है ।तुम उनसे कहना ......कि यह विषम विरह तो कभी का इस देह को जला कर राख कर देता ,किन्तु दर्शन की आशा रूपी बरखा नेत्रों से झरकर उस विरह अग्नि को शीतल कर देती रही ।तुम उन द्वारिकाधीश मयूर मुकुटी से पूछना , तुमने कहीं उस निष्ठुर पुरूष को कहीं देखा है ? उसकी विरहणी की आँखें पथ जोहते जोहते धुँधलाने लगी है ..... देह जर्जर हो गई है .....आशा की डोर ने ही अब तो श्वासों को बाँध रखा है ..........पर.....अब यह वियोग और नहीं सहा जाता .....सागर से मन की बात करते वह गाने लगी.........
🌿 दूखण....... लागे नैन.....
दरस बिन .....दूखण लागे नैन.....
क्रमशः .............
|| मीरा चरित ||
(117)
क्रमशः से आगे .............
🌿 द्वारिका में मीरा को सागर तट पर बैठे रहना , उससे अपने ह्रदय की बातें करना बहुत भाता था। वह घंटों तक समुद्र की लहरों को अपलक निहारा करती। कभी उसे लगता कि समुद्र के बीचोंबीच द्वारिका ऊपर उठ रही है। उसकी परिखा - द्वार से श्याम कर्ण अश्व पर सवार होकर मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर पधार रहें है । हीरक जटित ऊँचा मुकुट , जिसमें लगा रत्नमय मयूर पंख अश्व की चाल से झूम जाता है। गले में विविध रत्नहारों के साथ वैजयन्ती पुष्प माल , कमर में बँधा नंदक खड्ग , कमरबन्द की झोली से झाँकता पाञ्चजन्य शंख , घुँघराली काली अलकावलि से आँखमिचौनी खेलते मकराकृत कुण्डल ,बाहों में जड़ाऊ भुजबन्द और करों में रत्न कंकण , केसरिया अंगरखा और वैसी ही धोती , वैसा ही ज़रीदार गुथे हुये मुक्ता का रेशमी दुपट्टा ,जो वायुवेग से पीछे की ओर फहरा रहा है। जैसे ही सागर की तरंगों पर दौड़ता हुआ अश्व आगे आया ,द्वारिकाधीश ने मुस्कराते हुये दाँया हाथ ऊपर उठाया - वैसे ही मीरा उतावली हो सम्मुख दौड़ पड़ी - " स्वामी ! ..... मेरे प्राणनाथ !!! पधार गये आप......??? कहकर वह दौड़ती हुई ही अपने यहाँ गाये जाने वाले लोकगीत गाने लगी........"
🌿केसरिया बालमा हालो नी ,
पधारो म्हाँरो देस.........🌿
🌿 अरे..... मैं केसर के घोल से प्रियतम के पथ का मार्जन करूँ ,याँ मोतियन के चौक पुरा कर उनके स्वागत में रंगोली बनाऊँ ? अरी सखी !! पहले मैं गजमुक्ता के थाल भर कर अपने प्राणधन की नज़र तो उतार लूँ !!! आज बरसों के पश्चात मेरे स्वामी घर पधारे हैं। "
प्राणप्रियतम से मिलने की उत्सुकता में त्वराधिक्य के कारण मीरा जल में जा गिरती ,इसके पूर्व ही घोड़े की लगाम खिंच गई ,घोड़े के आगे के दोनों पैर ऊपर उठ गये। विद्युत की गति से वे अश्व से कूदे ,और दो सशक्त भुजाओं ने मीरा को आगे बढ़कर थाम लिया ।मीरा उनका हाथ पकड़े हुए ही घर आई। आते ही मीरा ने पुकारा..... " ललिता ! देख ,देख प्रभु पधारे हैं ! शीघ्रता पूर्वक भोग की तैयारी कर !! वह हर्ष से बावली होकर गाने लगी...........
🌿 साजन म्हाँरे घर आया हो ।
जुगाँ जुगाँ मग जोवती विरहिणी पिव पाया हो॥
रतन कराँ निछावराँ ले आरती साजाँ हो।
मीरा रे सुख सागराँ म्हाँरे सीस बिराजाँ हो॥
🌿 मिलन की उछाह में वह दिन रात भूल जाती , भूल जाती कि वह साधक वेश में निर्धन जीवन बिता रही है। मीरा सेवक - सेविकाओं को राजसी प्रबन्ध की आज्ञा देतीं। वह कई कई दिनों तक इस आनन्द में निमग्न रहती। अपने प्राण-सखा के साथ वह हँस हँसकर झूले पर बैठी बातें करती न थकती। ऐसे में कोई वृद्ध संत आ जाते तो वह एकदम झूले से उठकर घूँघट डाल तिरछी खड़ी हो जाती ।
" घूँघट किससे किया माँ ? मैं तो आपका बालक हूँ। " वह कहते।
तो मीरा श्यामसुन्दर की ओर ओट करके मुस्कुरा कर लाज भरे नयनों से झूले की तरफ़ संकेत कर देती। इन दिनों घर में एक महोत्सव सा छाया रहता। मीरा के उस भावावेश के आनन्द में सब आनन्दित रहते।
🌿 शंकर और किशन सेठों की दूकान पर काम करने जाते। उन्हें जो वेतन मिलता , उसी से साधु - सेवा और घर खर्च चलता। मीरा नित्य नियमपूर्वक द्वारिकाधीश के मन्दिर में प्रातः-सांय दर्शन भजन करने पधारती। सांयकाल नृत्य-गान अवश्य होता। भजनों की चौपड़ी ललिता चमेली के पास ही रहती। एक दो बार तो वह भावावेश में समुद्र में जा गिरी , सेविकाओं की सावधानी काम आई। उन्होंने समुद्र तट से दूर घर लेकर रहना प्रारम्भ किया। किन्तु मीरा के प्राण तो जैसे समुद्र में ही बसते थे। सूर्योदय ,सूर्यास्त, पूर्णिमा का ज़वार और शुक्ल पक्ष की रात्रियों में सागर दर्शन उन्हें बहुत प्रिय था। कभीकभी तो रात में भजन-कीर्तन का आयोजन भी समुद्र तट पर ही होता।
🌿 एक रात मीरा सागर तट पर बैठी थी। उसके पीछे ही कुछ दूर मंगला और किशन भी शीतल मंद बयार ( पवन ) के झोंकों के कारण नींद लेने लगे ।तभी मीरा ने चौंककर देखा , कि सामने खड़ी एक रूपसी नारी झुककर आदर पूर्वक उसका कर स्पर्श करते हुए धीमे स्वर में बोली ," तनिक मेरे साथ पधारने की कृपा करें !"
मीरा यन्त्रवत सी उठकर चल दी। जल के समीप पहुँच कर उसने अपनी दाहिनी हथेली बढ़ाई ,तो मीरा ने उसका आशय समझ उसका हाथ थाम लिया।उसका हाथ पकड़ वह जल पर भूमि की भांति चलने लगी ।कुछ ही दूर चलने पर मीरा ने देखा कि जल में से द्वारिका की स्वर्ण परिखा ऊपर उठ रही है।द्वार के आसपास का जल शांत था - मीरा ने अनुभव किया कि पाँवो के तले जल की कोमलता तो है पर न तो पाँव डूब रहे है और न ही वस्त्र गीले। समीप पहुँचते ही परिखा के स्फटिक द्वार के स्वर्ण कपाट संगीतमय ध्वनि करते खुल गये ।भीतर प्रवेश करते ही मीरा आश्चर्य से स्तब्ध सी रह गई। भूमि स्वर्णमयी थी और चारों ओर रत्नों से मण्डित भवन सुशोभित थे ।
🌿 " मेरा नाम शोभा है। मैं पट्टमहिषी देवी वैदर्भी की सेवा में हूँ ।" उस रूपसी ने आदरयुक्त वाणी में कहा।
" मुझे मीरा कहते है , यह तो आप जानती होंगीं ।" मीरा ने कहा ।
" हाँ हुकम ! आप मुझे यूँ आदर न दें , मैं तो मात्र एक दासी हूँ ।स्वामी आपको स्मरण करके प्रायः आँखों में आँसू भर लेते है - इसलिए मैं स्वामिनी की आज्ञा से आपके श्री चरणों में उपस्थित हुईं। "
अपने स्वामी से जुड़ा प्रत्येक जन मेरे लिए पूज्य एवं प्रिय है। बड़ी कृपा की देवी ने मुझ तुच्छ दासी पर। " मीरा ने भावुक हो स्निग्ध स्वर में कहा।
🌿 वे दोनों हीरों से निर्मित जगमगाते द्वार में प्रविष्ट हो दाहिनी ओर मुड़ गई। आगे विस्तृत चौक था। चारों ओर रत्न जटित भवन , बीचोंबीच विभिन्न पुष्पों और फलों से लदे उपवन। उस उपवन के मध्य पुष्करणी में कुमुदिनियों खिल रही थी। आम्र की डालियों पर सुन्दर झूले और वृक्षों पर बैठे मयूर ,पपीहा और दूसरे कई पक्षी। इतना वैभव, इतना सब दिव्य कि .... शब्द छोटे पड़ रहे थे ।चारों ओर रूपवान दासियों की चहल पहल थी , सब उसे सम्मान देते चल रही थी। मीरा ने तो मेवाड़ और चित्तौड़ का वैभव देखा था ..... पर यहाँ की तो साधारण दासी भी उन महारानियों से अधिक ऐश्वर्य और सौन्दर्य की स्वामिनी थी।
🌿 अनेक कक्ष-दालान पारकर दोनों एक सजे हुये कक्ष में पहुँची जहाँ एक ऊँचे रत्नजटित स्वर्ण सिंहासन पर सौन्दर्य ,ऐश्वर्य और सौकुमार्य की साम्राज्ञी विराजमान थी। शोभा ने पादपीठ पर सिर रख प्रणाम किया। मीरा जैसे ही प्रणाम के लिए झुकी , महादेवी वैदर्भी ने आगे झुककर मीरा को ह्रदय से लगा लिया -" आ गई तुम ।" उन्होंने मीरा को अपने समीप बिठाना चाहा , पर मीरा पादपीठ पर ही देवी के चरणों को गोद में लेकर बैठ गई।
" सभी बहिनें तुमसे मिलना चाह रही है। स्वामी यदा-कदा तुम्हारी स्मृति में नयन भर लातें हैं ।कठिन कठोर मर्यादाएँ बड़ी दुखदायी होती है बहिन ! अतः मुझे ही सबकी रूचि जानकर मध्यम मार्ग शोधना पड़ा। " देवी ने मीरा का चिबुक स्पर्श कर दुलार पूर्वक कहा ," पहचानती हो मुझे ? मैं तुम्हारी सबसे बड़ी बहन रूक्मिणी हूँ ! आओ इधर सुखपूर्वक बैंठे !" ऐसा कहकर हँसते हुये मीरा का हाथ थाम कक्ष में बिछे रेशमी गद्दे पर मसनद के सहारे वे विराजित हो गई ।
🌿 दासियाँ मधुर पेय लेकर उपस्थित हुई । देवी रूक्मिणी की आज्ञा से एक पात्र मीरा ने भी उठा लिया और धीरेधीरे पीने लगी। किसी भी प्रकार वह समझ नहीं पाई कि वह पेय किस फल का रस था। खाली पात्र लौटाते हुये उसने आश्चर्य से देखा कि उसके हाथों की झुर्रियाँ समाप्त हो गई हैं और वह स्वयं भी षोडश वर्षीया किशोरी के समान सुन्दर और सुकुमार हो गई है।
क्रमशः ................
|| मीरा चरित ||
(118)
क्रमशः से आगे ............
🌿 मीरा दिव्य द्वारिका में महारानी रूक्मिणी जी के साथ बैठी है। वहाँ आलौकिक पेय रस के सेवन पश्चात मीरा षोडश वर्षीया किशोरी सी सुकुमारी हो गई । उसी समय सम्मुख द्वार से राजमहिषियों ने प्रवेश किया । देवी रूक्मिणी और मीरा उनके स्वागत में उठ खड़ी हुईं। देवी ने दो पद आगे बढ़कर सबका स्वागत करते हुये कहा ," पधारो बहिनों ! अपनी इस छोटी बहिन से मिलिये। "
आनेवाली महारानियों ने महादेवी के चरण स्पर्श किए और उन्हें आलिगंन दिया। मीरा ने भी भूमि पर सिर रखकर सबका एकसाथ अभिवादन किया। सबके आसन ग्रहण करने के पश्चात देवी ने उनका परिचय कराते हुए बताया ," यह मेरी छोटी बहिन सत्यभामा ,यह.......। "
अब बस सरकार ! बाकी सबसे परिचय कराने का अधिकार मुझे मिले ! यों भी आप हमारी ज्येष्ठा हो ! " हँसते हुये मधुर स्वर में सत्यभामा ने कहा - " यह है देवी जाम्बवती ,मेरी बड़ी बहिन ! " हरित परिधान धारण किए संकोचशीला जाम्बवती ने मुस्कुरा कर चिबुक स्पर्श किया ।"यह देवी भद्रा , यह मित्रविन्दा , यह सत्या , यह लक्ष्मणा और यह रविनन्दिनी कालिन्दी। " मुस्कराते , परिहास करते सब महारानियाँ क्रमवत अतिशय स्नेह से मीरा को मिली , किसी ने आलिंगन किया ,किसी ने कहा ," बहिन ! तुम्हें मिलने की बड़े दिनों से लालसा थी। " सबके हँसने से यूँ लगा जैसे बहुत सी चाँदी की नन्हीं घंटियाँ एक साथ टनटनाई हो !!!!!!!
" और ये हमारी बहिनें सोलह सहस्त्र एक सौ !"
मीरा ने सबको एकसाथ हाथ जोड़कर और मस्तक नवा कर प्रणाम किया। तभी लक्ष्मणा जी हँसती हुई बोली ," सरकार ! हमारी बहिन इस तरह आभूषण और श्रृगांर के बिना रहे ......लगता है हमें ही वैराग्य का उपदेश करने कोई वैष्णवी आई हो ! " सबने लक्ष्मणा की बात का अनुमोदन किया।
🌿 "इसे पृथक महल में भेजकर श्रृगांर धारण कराने की व्यवस्था की है मैंने !" देवी रूक्मिणी बोली।
" तुम बोलती क्यों नहीं बहिन ! तनिक अपने मुख से बोलो तो मन प्रसन्न हो ! तुम्हारा नाम क्या है ?" देवी मित्रविन्दा ने स्नेहासिक्त स्वर से पूछा।
" जी क्या निवेदन करूँ ? यह मीरा आपकी अनुगता दासी है। मुझे भी सेवा प्रदान कर कृतार्थ करें " मीरा ने सकुचाते हुये कहा ।
" तो हमारे दुलार से , स्नेह से , तुम्हें कृतार्थता का बोध नहीं हुआ बहिन ?" सत्यभामा जी हँसी।
मीरा ने अचकचाकर पलकें उठाई ," सरकार ! आप सबके कृपा अनुग्रह से दासी धन्य - कृतार्थ हुईं है। "
🌿 तभी सैरन्ध्री मीरा को श्रृगांर हेतु लेने आ गई। मणि प्रदीप्त कक्ष में मीरा को सुगन्धित जल से स्नान करा, अगुरू धूप से केश सुखाये। अमूल्य दिव्य वस्त्र अलंकार धारण करा कर सुन्दर रीति से केश प्रसाधन किया। उसका सौन्दर्य द्वारिकाधीश की महिषियों से तनिक भी न्यून नहीं लग रहा था। सोलह श्रृगांर से सुसज्जित कर दासियों ने उन्हें देवी जाम्बवती के पास बिठा दिया।
🌿 " अहा ! देखो कितनी सुन्दर लग रही है हमारी बहिन !" सत्या ने मीरा का चिबुक उठाकर ऊपर दिखाया। मीरा तो संकोच की प्रतिमा सी पलकें झुकाई बैठी रही जैसे अभी अभी विवाह मण्डप से उठकर आई हो। थोड़ी ही देर में संगीत और नृत्य का समाज जुट गया। सब महारानियाँ बारी से नृत्य करने लगी। सत्यभामा ने मीरा को अपने साथ ले लिया। कितने समय तक यह नृत्योत्सव चलता रहा ।
इसके पश्चात दासियाँ पुनः पेय लेकर प्रस्तुत हुई ।और उसके बाद भोजन की तैयारी ।इतने राग-रंग में मीरा को प्रसन्नता तो हुईं पर मन ही मन वह प्राणप्रियतम के दर्शन के लिए आकुल थी। भोजन के समय भी प्रभु को वहाँ न पा उससे रहा नहीं गया। मीरा ने सकुचाते हुये जाम्बवती से पूछ ही लिया ,"प्रभु के भोजन से पूर्व ही हम भोजन कर लें ?"
क्रमशः ...........
🙏🏼🌹 राधे राधे 🌹🙏🏼
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श्री राधे...
