मीरा चरित भाग 109 से भाग 113 तक

|| श्रीकृष्ण ||
|| मीरा चरित ||
(109)
क्रमशः से आगे .........

🌿 मीरा अपने जीवन के अगले पड़ाव पर पहुँची...... द्वारिका । द्वारिका और द्वारिकाधीश के दर्शन कर मीरा प्रसन्न मग्न हो गयी। प्रभु के दर्शन कर , उनकी छवि को निहार उसका ह्रदय गा उठा .......

🌿 म्हारों मन हर लीन्हों रणछोड़ ।
मोर मुगट सर छत्र बिराजे कुंडल री छबि ओर॥
चरण पखारे रतनाकर री धरा गोमत जोर ।
धुजा पताका तट-तट राजे झालर री झकझोर॥
भगत जणा रा काज सँवार्या म्हाँरा प्रभु रणछोर।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर कर गह्ययो नन्दकिशोर॥

🌿 मीरा की कीर्ति उनसे पहले ही द्वारिका पहुँच गयी थी ।उनके आगमन का समाचार सुनकर संत-भक्त सत्संग के लोभ से आने लगे, जैसे पुष्प गंध पाकर भ्रमरों का झुंड चला आता हो ।उनकी अनुभव-पक्व-वाणी ,स्निग्ध मुखाकृति ,तेजोदिप्त नेत्र ,त्यागमय जीवन और राग-रागनियों से युक्त भावपूर्ण अद्भुत-आलौकिक कंठ स्वर आने वाले भक्तों के सारे संशयो का नाश कर देते थे । मीरा की देह में अब हल्की सी स्थूलता आ गयी थी ,किन्तु जब वे रणछोड़राय के सामने भाव-विभोर नृत्य करती तो लगता कि किसी अन्य लोक की देवांगना ही धरा पर उतर आई हैं।

🌿 गोमती की धारा और उसका सागर से मिलन उस सागर का अंतहीन विस्तार और गहराई उन्हें अपने स्वामी से मिलने का सन्देश देती ,वे सब उनके ऐश्वर्य के प्रतीक - से लगते ।वे प्रातः सागर गर्भ से उदभूत अंशुमाली ( सूर्य ) को एकटक देखती रहती ।इसी प्रकार सांयकाल जब वे प्रचण्ड रश्मि अपना तेज समेटकर अनुराग-रंजित हो देवी प्रतीची के भवन द्वार पर होते, उनके प्राण एक अनोखी पीड़ा से छटपटा उठते।कभी मीरा को लगता कि द्वारिकाधीश किनारे के उस पार मुस्कराते हुए खड़े है और गोमती की उत्तालित तरंगे ठाकुर के श्री चरण धोवन के लिए आपस में होड़ लगा रही हो।

🌿 मीरा की आँखों के सामने द्वापर की द्वारिका मूर्त हो जाती और......और उस द्वारिका में सहस्त्रो भवनों को समेटे हुए वह स्वर्ण परिखा, उसका वह रत्नजडित द्वार ,उस द्वार के दर्शन मात्र से वे अधीर हो जाती ।उनकी देह काँपने लगती और द्वार में प्रवेश से पूर्व ही अचेत हो भूमि पर गिर पड़ती ।कभी उस द्वार पर टकटकी लगाए देखती रहती -''यह, यह तो अपना ही .....अपने स्वामी और उनकी प्रियतमा पत्नियों के महलों का द्वार हैं..........
कितने लोग आ जा रहे थे उस द्वार से..... कितनों को मैं पहचानती हूँ...... ये, ये सात्यकी हैं और ये क्रतवर्मा नारायणी सेना के उदभट वीर सेनापति ..........ये साम्ब जा रहे हैं और ये..... उद्धव, प्रधुम्न, अहा ! प्रधुम्न ने कैसी मुख छवि पायी है बिलकुल अपने पिता की तरह , सहसा देखकर लगता हैं कि वही हैं.... और वे आ रहे हैं भुवनपति द्वारिकाधीश, मेरे.....मेरे.....प्राणपति......मेरे.....सर्वस्व....मेरे घूँघट की लाज......मेरे जीवन की अवधि......मेरे.....आगे कुछ कहने को नहीं मिलता । वह मदगज चाल ,वह मोहन मुस्कान , दृगों की वह - वह अनियारी चितवन...अहा... उन्होंने मेरी ओर देखा , देखा पहचान आयी दृष्टि में ये.........ये मुस्कराये.... .....मेरी ओर देखकर ..................। "

🌿 मीरा गोमती तट पर यह सब दर्शन करते करते मूर्छित हो जाती और दासियाँ उपचार करने में जुट जाती । दूर खड़े लोग उनकी दशा देख " धन्य - धन्य " कर उठते ।उनकी चरण-रज सिर पर चढ़ाकर स्वयं को कृतार्थ मानते ।उनके अधीर प्राण देह की बाधा को पार करने के लिये व्याकुल हो उठते - ' दासियाँ, संखियाँ समझाती पर उनकी व्याकुलता बढ़ती ही जाती ।वे गाते हुए अपने भावो का श्रृंगार करती .............

🌿 राय श्रीरणछोड़ दीज्यो द्वारिका रो वास।
शंख चक्र गदा पद्म दरसे मिटे जैम की त्रास॥
सकल तीर्थ गोमती के रहत नित-निवास।
संख झालर झांझर बाजे सदा सुख की वास ॥
तज्यो देसरु वेस हू तजि तज्यो राणा वास।
दास मीरा सरण आई थाने अब सब लाज ॥

🌿 वह प्रभु से निहोरा करती हुई कहती - ' तुम्हारा विरद मुझे प्रिय लगा ।इसलिए सब मेरे वैरी हो गये। अब यदि तुम सुधि ना लो, ना निभायो ,तो मुझे कहीं कोई सहारा नहीं हैं। मीरा ने अपने वे सुन्दर घने केश जिनमें कहीं कहीं सफ़ेदी झाँक उठी थी ,मुँडवा लिए ।भगवा वेश धर हाथ में इकतारा ले वे करूणा और भक्त वत्सलता के पद गाती।
मीरा के भावों में अधिकतर विरह रस ही होता - एक ऐसी विरहणी की दशा जो ठाकुर के दर्शन सुख के लिए कब से वन - वन डोल रही है। एक ऐसी विरहणी - जो कब से द्वारिकाधीश की एक झलक के लिए..... एक संदेश के लिए तरस रही है ...... गोमती के किनारे झरती आँखों से वह घंटों उसकी लहरों से अपने प्रियतम का संदेश पूछते हुए कहती.........

🌿 कोई............कहियो री हरि आवन की,
आवन की मनभावन की ........

क्रमशः ...........

|| मीरा चरित ||
(110)
क्रमशः से आगे.........

🌿 द्वारिका में मीरा को सपरिकर रहते कुछ समय बीत गया ।द्वारिकाधीश दर्शन , गोमती के किनारे घंटों तक खड़े दूसरी छोर तक निहारना , प्रतीक्षा करते रहना मीरा का जैसे नियम सा हो गया था। याँ फिर कई संत , महात्मा उसका यश श्रवण कर दर्शन के लिए आते तो कुछ समय सत्संग में उसका मन रम जाता।

🌿 एक बार एक दुखी व्यक्ति, जिसका एकमात्र युवा पुत्र मृत्यु को प्राप्त हुआ , वः सभी तीर्थो में घूमता - फिरता द्वारिका पहुँचा और मीराबाई का नाम सुन दर्शन करने आया ।अपनी विपद गाथा मीरा को सुना उसने साधु होने की इच्छा को प्रगट किया ।मीरा ने समझाया - " क्या केवल घर छोड़ना और कपडे रंगाना ही तुम्हारी समस्या का हल हैं? "
व्यक्ति बोला - ' मैं दुःख से तप गया हूँ ।पुनः दुःख का सामना नहीं करना चाहता।"
मीरा ने व्यक्ति को सांत्वना देते हुए कहा - '' दुःख-सुख भौतिक वस्तु नहीं हैं, कि कोई उठाकर तुम्हे दे दे ।अथवा कोई सेना नहीं कि तुम भागकर उससे बच सको। तुम्हारा अर्थ हैं कि पुत्र की मृत्यु से तुम्हे जो दुःख की अनुभूति हुई ,वह तुम्हे फिर ना झेलनी पड़े। यही ना ?"
" जी सरकार ।"

🌿 मीरा ने आगे सहज़ता से समझाते हुए कहा ," कि इसका अर्थ तो केवल यह है कि इस दुख की अनुभूति से तुम्हे पीड़ा हैं। पुत्र इसलिए प्रिय है कि उसके जीवित रहने से सुख और मरने से दुःख का अनुभव होता हैं। और यह इसलिए क्योंकि तुम्हारा उसमे मोह हैं। " यह मेरा हैं ,बड़ा होकर मेरा सहारा बनेगा , बहु आयेगी, सेवा करेगी , पौत्र होगा, वंश बढेगा , मरने पर मरणोत्तर कार्य करेगा ,यही ना ?"
व्यक्ति ने स्वीकृति में सिर झुका दिया ।
" सोचकर देखो ! ये सब भावनाएँ केवल अपने लिए ही तो थी। अपने सुख की इच्छा, और इस इच्छा में बाधा पड़ते ही तुम्हें दुःख ने आ घेरा। परन्तु सोचकर देखो - यदि पुत्र जीवित होता और तुम्हारी इच्छा के विपरीत व्यवहार करता , तो क्या तब भी तुम साधु होने की इच्छा करते क्या ?"
" आपका फरमाना ठीक हैं।"

🌿 +" तो इस दुख से मात्र निवृत होने की तुम्हारी इच्छा को भगवान से जुड़ने की , उन्हें पाने की लालसा का ,भक्ति का नाम देना तो उचित नहीं होगा। यह तो परिस्थिति से आँखें मूँद कर विमुख होना पलायन है , भक्ति की तो इसमें सुगन्ध भी कहीं नहीं। "
"पर सोचो तो तुम तो फिर भी ठीक हो जो दुख से निवृत होने के कारण और कुछ मोह से वैराग्य होने पर इस माया से निकल आने की बात तो सोचते हो । अधिकाँश लोग तो इस मोह के गर्त से निकलना ही नहीं चाहते। रात-दिन कलह, व्यथा , चिंता झेलकर भी वह मोह को नहीं छोड़ पाते । क्योंकि मोह ही दुःख का मूल हैं। पाप का पिता मोह, माता तृष्णा और क्रोध, लोभ, मद-मत्सर, आशा आदि कुटुम्बी हैं। इनका एक भी सदस्य मन में घुसा.......नहीं कि धीरे-धीरे पुरे कुटुंब को ले आता हैं। फिर पाप की पत्नी अशांति तथा बेटी मृत्यु भी आकर क्रमशः हमें ग्रस लेती हैं। और इनसे बचने का उपाय केवल और केवल भजन हैं ,साधू होना नहीं ।अभी तुम्हारे षट विकार दूर नहीं हुए हैं कि खाने-सोने की चिंता न रहे ।यदि साधू हुए ,तो सबसे पहली तो चिंता तुम्हे यह लगेगी कि कहाँ रहे, क्या खाये, और कहाँ सोये । यदि वैराग्य ही नहीं हैं तो कठिनाई नहीं सह पाओगे और संसार से विरक्ति ना होकर साधू वेश से ही विरक्ति हो जायेगी ।"

🌿 मीरा ने इकतारा उठाया और सदा के मधुर स्वर में उसे और जीव मात्र को उपदेश देते हुये गाया कि ," हे मेरे मन ! तू उस अविनाशी हरि के चरण कमल का ध्यान धर ! जो तुझे आज धरती और आकाश के मध्य जो भी दिखाई दे रहा है .. वह सब विनष्ट हो जायेगा ! तीर्थ यात्रा ,कोई व्रत के पारण और न ही इस शरीर को कोई कष्ट देने से तुझे प्रभु की प्राप्ति हो सकती है ! यह संसार तो एक चौसर की बाज़ी के समान है जो शाम ढलते ही उठ जायेगी और उसी तरह यह देह भी मिट्टी में ही मिल जायेगी ! योगभक्ति का अर्थ समझे बिना ऐसे ही भगवे वस्त्र पहन कर घर त्याग का कोई लाभ नहीं ! अगर प्रीति पूर्वक भक्ति की युक्ति ही नहीं समझी ,तो बारबार उल्टे इसी जन्म मरण के चक्कर में ही रह जाना पड़ेगा ......

🌿 भज मन चरणकँवल अविनाशी।
जेताई दीसे धरण गगन बिच,
तेताई सब उठ जासी।
कहा भयो तीरथ व्रत कीन्हें,
कहा लिये करवत कासी ॥
🌿 इण देही का गर्व न करणा ,
माटी में मिल जासी।
या संसार चौसर की बाजी,
साँझ पड़याँ उठ जासी ॥
🌿 कहा भयो है भगवा पहरयाँ,
घर तज भये सन्यासी ।
जोगी होय जुगत नहीं जाणी ,
उलट जनम फिर आसी ॥
🌿 अरज़ करूँ अबला कर जोड़े ,
श्याम तुम्हारी दासी ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
काटो जम की फाँसी ॥🌿

ये तो ,हे श्यामसुन्दर ! कोई ऐसा उपाय करो , कि मीरा की इस भवफाँसी काट कर उद्धार करो !

क्रमशः ...............

|| मीरा चरित ||
(111)
क्रमशः से आगे ............

🌿 द्वारिका में ,मीरा एक ऐसे दुखी व्यक्ति जो पुत्र की मृत्यु के पश्चात हताश हो सन्यास लेना चाहता था ,उसका मार्ग दर्शन कर रही है । मीरा ने उसे समझाया कि इस तरह की परिस्थितियों से आये क्षणिक वैराग्य को आप भक्ति का नाम नहीं दे सकते ।

🌿 मीरा ने उसे सहज़ता से बताते हुये कहा ," अगर तुम भक्ति पथ पर शुभारम्भ करना ही चाहते हो तो शुष्क वैराग्य और सन्यास से नहीं ब्लकि भजन से करो। भजन का नियम लो , और इस नियम को किसी प्रकार टूटने न दो ।अपने शरीर रूपी घर का मालिक भगवान को बनाकर स्वयं उसके सेवक बन जाओ। कुछ भी करने से पूर्व भीतर बैठे स्वामी से उसकी आज्ञा लो ।जिस कार्य का अनुमोदन भगवान से मिले , वही करो ।इस प्रकार तुम्हारा वह कार्य ही नहीं , ब्लकि समस्त जीवन ही पूजा हो जायेगा ।नियम पूर्ण हो जाये तो भी रसना ( जीभ ) को विश्राम मत दो ।खाने , सोने और आवश्यक बातचीत को छोड़कर , ज़ुबान को बराबर प्रभु के नाम उच्चारण में व्यस्त रखो ।"

🌿" वर्ष भर में महीने दो महीने का समय निकाल कर सत्संग के लिए निकल पड़ो और अपनी रूचि के अनुकूल स्थानों में जाकर महज्जनों की वार्ता श्रवण करो। सुनने का धैर्य आयेगा तो उनकी बातें भी असर करेंगी। उनमें तुम्हें धीरे - धीरे रस आने लगेगा। जब रस आने लगेगा , तो जिसका तुम नाम लेते हो ,वह आकर तुम्हारे भीतर बैठ जायेगा ।ज्यों - ज्यों रस की बाढ़ आयेगी ,ह्रदय पिघल करके आँखों के पथ से निर्झरित होगा ,और वह नामी ह्रदय - सिंहासन से उतर कर आँखों के समक्ष नृत्य करने लगेगा। इसलिए ......

🌿राम नाम रस पीजे मनुवा ,
राम नाम रस पीजे।
तज कुसंग सत्संग बैठ नित,
हरि चर्चा सुन लीजे ॥

🌿काम क्रोध मद लोभ मोह कूँ ,
चित्त से दूर करी जे ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
ताहि के रंग में भीजे ॥

🌿 " आज्ञा हो तो एक बात निवेदन करना चाहता हूँ !" एक सत्संगी ने पूछा ।और मीरा से संकेत पा वह पुनः बोला ," जब घर में रहकर भजन करना उचित है अथवा हो सकता है तो फिर आप श्रीचरण ( मीरा ) रानी जैसे महत्वपूर्ण पद और अन्य समस्त सुविधाओं को त्याग कर ये भगवा वेश , यह मुण्डित मस्तक ..........?"
"देखिए ,जिसके लिए कोई बन्धन नहीं है, जिसके लिए घर बाहर एक जैसे है , ऐसे हमारे लिए क्या नियम ?"

🌿म्हाँरा पिया म्हाँरे हिवड़े रहत है ,
कठी न आती जाती।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर ,
मग जोवाँ दिन राती ॥
"सार की बात तो यह है कि बिना सच्चे वैराग्य के घर का त्याग न करें ।"
" धन्य ,धन्य हो मातः !" सब लोग बोल उठे ।

🌿" क्षमा करें मातः! आप ने फरमाया कि भजन अर्थात जप करो ।भजन का अर्थ सम्भवतः जप है । पर जप में मन लगता नहीं माँ !" उसने दुखी स्वर में कहा ," हाथ तो माला की मणियाँ सरकाता है , जीभ भी नाम लेती रहती है , किन्तु मन मानों धरा - गगन के समस्त कार्यों का ठेका लेकर उड़ता फिरता है ।ऐसे में माँ , भजन से , जप से क्या लाभ होगा ? ब्लकि स्वयं पर जी खिन्न हो जाता है। "

🌿 मीरा ने उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुये कहा ," भजन का अर्थ है कैसे भी ,जैसे हो, मन - वचन - काया से भगवत्सम्बन्धी कार्य हो। हमें भजन का ध्यान ऐसे ही बना रहे , जैसे घर का कार्य करते हुये , माँ का ध्यान पालने में सोये हुये बालक की ओर रहता है याँ फिर सबकी सेवा करते हुये भी पत्नी के मन में पति का ध्यान रहता है। पत्नी कभी मुख से पति का नाम नहीं लेती , किन्तु वह नाम उसके प्राणों से ऐसा जुड़ा रहता है कि वह स्वयं चाहे तो भी उसे हटा नहीं पाती। मन सूक्ष्म देह है ।जो भी कर्म बारम्बार किए जाते है , उसका संस्कार दृढ़ होकर मन में अंकित होता जाता है। बिना मन और बुद्धि के कोई कार्य बार बार करने से मन और बुद्धि उसमें धीरेधीरे प्रवृत्त हो जाते है ।जैसे खारा याँ कड़वा भोजन पहले अरूचिकर लगता है , पर नित्य उसका सेवन करने पर वैसी ही रूचि बन जाती है। "
" जप किया ही इसलिए जाता है कि मन लगे ,मन एकाग्र हो ।पहले मन लगे और फिर जप हो , यह साधारण जन के लिये कठिन है । यह तो ऐसा ही है कि जैसे पहले तैरना सीख लें और फिर पानी में उतरें । जो मन्त्र आप जपेंगें , वही आपके लिए , जो भी आवश्यक है, वह सब कार्य करता जायेगा । मन न लगने पर जो खिन्नता आपको होती है , वही खिन्नता आपके भजन की भूमिका बनेगी। बस आप जप आरम्भ तो कीजिए। आरम्भ आपके हाथ में है , वही कीजिए और उसे ईमानदारी से निभाईये। आपका दृढ़ संकल्प , आपकी ,निष्ठा , सत्यता को देख भजन स्वयं अपने द्वार आपके लिए खोल देगा ।"

क्रमशः ...................

|| मीरा चरित ||
(112)
क्रमशः से आगे .........

🌿 द्वारिका में मीरा घंटों सागर के तट पर खड़ी रहती। सागर की उत्ताल तरंगे उसे विभोर कर देती , किन्तु प्रिय - विरह उन्हें चैन न लेने देता । मीरा को वृन्दावन की उन रात्रियों का स्मरण हो आता , जब वह ललिता जू के संग गोवर्धन गिरि के कुञ्जों , यमुना पुलिन और वृंदा वीथियों में श्री श्यामसुन्दर की लीला दर्शन करती हुईं घूमती थी। मीरा सोचती ," वृन्दावन पहुँच कर तो लगता था , बस गन्तव्य आ गया। अब कहीं नहीं जाना , कुछ देखना सुनना बाकी नहीं रहा। किन्तु धणी का धणी कौन है ? अब ये द्वारिकाधीश कहाँ परदेस जा बसे कि प्राणों की पुकार सुनते ही नहीं , मेरे ह्रदय का क्रन्दन उन्हें क्यों सुनाई नहीं देता !! हाय यह मेरे प्राण इस पिण्ड ( शरीर ) में क्यों अटके हुए है ?? न तो प्रभु स्वयं दर्शन देते है और न ही कोई संदेश भिजवाते है !! क्यूँ न मैं कटारी ले कर स्वयं को समाप्त कर लूँ ?? बस एक बार आपके दर्शन की लालसा ने ही मेरे प्राण बाँध रखे है !!!"

🌿 मीरा की व्याकुलता दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाती थी। और उसे शांत करने का एक ही उपाय था - सत्संग। संतों के दर्शन कर उनमें मानों नये प्राणों का संचार हो जाता था। वे स्वयं कहती......

🌿 श्याम बिन दुख: पावाँ सजनी कौन म्हाँने धीर बँधावे।
.........................................
साध संगत में भूल न जावे मूरख जनम गमावे।
मीरा तो प्रभु थाँरी सरणाँ जीव परम पद पावे॥

🌿 कभीकभी तो मीरा श्रीकृष्ण के विरह में यूँ अचेत हो जाती , मानों देह में प्राण ही न हो। दासियाँ रो उठती , किन्तु मंगला धीर धरकर कीर्तन करने को कहती।उनके संकीर्तन से वह सचेत तो हो जाती , पर उसकी पीड़ा देख वे पछताने लगती कि जब तक वह अचेत थी , पीड़ा भी शांत थी। शायद मूर्छा में प्रभु दर्शन का सुख पा रही हों !! सचेत होने पर वे कभी नील वर्ण सागर को अपना प्रियतम जानकर मिलने के लिए दौड़ पड़ती। और कभी गगन के नीले रंगों में घनश्याम को पकड़ने दोनों हाथ उठाकर उछल पड़ती। दिन तो जैसे तैसे साधु-संग ,भजन-कीर्तन में निकल जाता , किन्तु रात तो बैरिन ही होकर आती। मंगला बारम्बार समझाती ," बाईसा हुकम ! द्वारिकाधीश पधारते ही होंगे ! वे आपसे कैसे दूर रह सकते है ?आप थोड़ा धीरज धारण करें !"

🌿 मीरा प्रभु के विरह में उस मीन की तरह तड़फती , जिसे जल से बाहर निकाल दिया हो - " मंगला ! अब मैं उनके बिना कैसे रहूँ ? मेरा पल पल युग के समान बीत रहा है ? क्या उन्हें मेरी इस पीड़ा का अहसास भी है ?? मिलकर बिछुड़ना तो उनका खेल है ,पर मैं क्या करूँ ?? मैं चाहती तो हूँ कि वह जैसे , जिस हाल मैं मुझे रखें , उनकी प्रसन्नता में प्रसन्न रहूँ , किन्तु ......यह देह....... देह ही तो बाधा है !! पापी प्राण इतना कष्ट पाते हैं , पर देह का मोह छोड़कर निकलते क्यों नहीं???"

🌿 तुमरे कारण सब सुख छोड़या ,
अब मोहि क्यूँ तरसावौ हौ।
विरह व्यथा लागी उर अन्तर ,
सो तुम आय बुझावौ हौ ॥
🌿 अब छोड़त नहीं बणै प्रभुजी ,
हँसकर तुरत बुलावौ जी।
मीरा दासी जनम जनम की ,
अंग से अंग लगावौ जी ॥

क्रमशः ..............

|| मीरा चरित ||
(113)
क्रमशः से आगे ..........

🌿 मीरा का प्राण प्रियतम श्री श्यामसुन्दर के लिए विरह प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा था। एक दिन वह अचेत पड़ी थी। मुखाकृति भी पहचान में नहीं आती थी। मुख से झाग और आँखों से पानी निकल रहा था ।मीरा की तप्तकांचन वर्ण देह झुलसी कुमुदिनी के समान हो गई थी , पर सम्पूर्ण देह ऐसी फूली - सी लगती थी - जैसे उसमें पानी सा भर गया हो। मुख से भी अस्पष्ट स्वर निकलता । मीरा की ऐसी दशा देख दासियाँ अतिशय व्याकुल थीं - वे सब प्रयत्न करके भी स्थिति को संभाल पाने में असहाय थी।

🌿 सब मिल कर रोते हुए कण्ठ से प्रार्थना कर रही थी ," हे द्वारिका नाथ ! आपके भरोसे पर हम द्वारिका आई .....पर आप तो हमारी सुध ही नहीं ले रहे। हम तो जनम से अभागण है - जो ऐसी स्वामिनी पाकर भी न तो तुम्हारी भक्ति कर पाई और न ही हमसे इनकी उचित सेवा ही बन पड़ रही है ।इतने पर भी , हे जगन्नाथ ! किसी जन्म में हमसे भूल से भी कोई पुण्य बन गया हो तो कृपा कर हमारी स्वामिनी को दर्शन दो .......दर्शन दो ! हम असहायों का इस परदेस में तुम्हारे सिवा अब कौन अपना है जिसे हम अपना दुख बताये ?" यूँ प्रार्थना करते करते वे फूट फूट कर रो पड़ी।

🌿 उसी समय द्वार पर स्वर सुनाई दिया ," अलख !!"
" हे भगवान ! अब इस राजनगरी में कौन निरगुनिया आ गया ?" कहते हुए चमेली ने स्वागत के लिए द्वार खोला। उसने देखा - " यह तो आलौकिक साधु है। भगवा वस्त्र धारण किये ,सोलह - सत्रह वर्ष का साँवला सिलौना किशोर। " चमेली ठगी सी कुछ क्षण उसका तेजस्वी मुख दर्शन करती रही ।फिर प्रणाम कर खोये से स्वर में बोली - "पधारे भगवन ! आसन ग्रहण करें। आज्ञा करें , क्या सेवा करूँ ?"
" देवी ! तुम्हारा मुख म्लान है। कोई विपत्ति हो तो कहो। " सन्यासी ने स्निग्ध स्वर में कहा।
" आप हमारी क्या सहायता करेंगे , आप तो स्वयं बालक हैं ! हमारी विपत्ति असीम है !! और द्वारिकाधीश के अतिरिक्त उसका समाधान किसी के पास नहीं!!! " चमेली ने उदास और झुँझलाते हुए स्वर में कहा। तभी मंगला बाहर आई और सन्यासी को एकटक सी देखने लगी।
" क्या कोई नियम है कि सन्यासी को वृद्ध ही होना चाहिए अथवा यह कि ज्ञान बड़े - बूढ़ों की ही बपौती है ?" सन्यासी ने हँसते हुये कहा।
मंगला आगे बढ़ बात संभालते हुये बोली," नहीं प्रभु ! इसका ऐसा आशय नहीं था। वास्तव में हमारी स्वामिनी बहुत अस्वस्थ है और हम सब उनके जीवन से निराश है। बस मन व्यथित होने से किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही है। हमसे कुछ अपराध हुआ हो तो क्षमा कीजिए। और भीतर पधार प्रसाद ग्रहण करें। "

🌿 " तुम्हारे दुख का कारण तुम्हारी स्वामिनी का रोग है । देखिए , जिस घर से मैं भिक्षा लूँ ,उस घर के लोग दुखी - व्यथित हो, यह मैं सह नहीं पाता।मैं केवल उन रूग्ना को देखना चाहता हूँ। यदि मेरी शक्ति की परिधि में हुआ तो अवश्य ही.......". यति ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
''पधारें प्रभु !" मंगला नें उन्हें भीतर आने का संकेत किया।
योगी नें भीतर प्रवेश किया। मीरा को देख कर वह मुस्कुराया और सिर पर हाथ रख कुछ बड़बड़ाया।
आश्चर्य और प्रसन्नता से सबने देखा कि - मीरा की फूली हुई देह धीरेधीरे सामान्य होने लगी ।दो तीन घड़ी पश्चात ही मीरा उठ कर बैठ गयीं। जोगी ने सिरसे हाथ हटाकर स्निग्ध सवर में पूछा - "क्या हो गया तुम्हें ?"
यह कह यति खिलखिला कर हँस पड़ा।

🌿 मीरा किसी अपरिचित लेकिन अपनत्व से परिपूर्ण स्वर एवं स्पर्श को पा चौंक उस किशोर योगी को देखने लगी। यह......यह हँसी तो ब्रज में कई बार देखी सुनी है। मीरा के मुख से अनायास ही निकला ," श्याम .......सुन्दर !!!"
जोगी फिर हँसा ," नहीं ! मैं रमता जोगी। जैसा भेस , वैसी बात ! किन्तु देवी ! केवल मेरा वर्ण , मेरी सूरत आपके स्वामी से मिलती है , मैं वह हूँ नहीं। "
मीरा की आशा से चमक पड़ी आँखों में से फिर आँसू ढलक पड़े........

क्रमशः ............


🙏🏼🌹 राधे राधे 🌹🙏🏼
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✍🏽 WhatsApp या Facebook पर मीरा चरित का यह जो प्रसंग आता है,  भाग 1 से लेकर भाग 123 तक, यह संक्षेप में है। जो मुख्य रूप से पुस्तक से लेकर लिखा गया है। लेकिन पुस्तक में और विस्तार से लिखा हुआ है और भी बहुत सारे प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे, जो कि बहुत ही रोचक है, भावुक कर देने वाला प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे। इसलिए निवेदन है कि मीरा चरित पुस्तक जरूर पढ़ें। और यदि आप  पुस्तक मंगवाना चाहते हैं तो आप इस पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।

श्री राधे...

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