मीरा चरित (भाग 39 से भाग 44 तक)
|| श्रीकृष्ण ||
|| मीरा चरित ||
(39)
क्रमश: से आगे...............
एक दिन, मीरा ने भोजराज से कहा, "आपकी आज्ञा हो तो एक निवेदन करूँ।"
"क्यों नहीं? फरमाइए।" भोजराज ने अति विनम्रता से कहा।
"मेड़ते में तो संत आते ही रहते थे। वहाँ सत्संग मिला करता था। प्रभु के प्रेमियों के मुख से झरती उनकी रूप-गुण-सुधा के पानसे सुख प्राप्त होता है, वह जोशीजी के सुखसे पुराण कथा सुनने में नहीं मिलता।यहाँ सत्संग का आभाव मुझे सदा अनुभव होता है।"
भोजराज गम्भीर हो गये-"यहाँ महलो में तो संतो के प्रवेश की आज्ञा नहीं है। हाँ, किले में संत महात्मा आते ही रहते है,किन्तु आपका बाहर पधारना कैसे हो सकता है?"
"सत्संग बिना तो प्राण तृषा (प्यास) से मर जाते है।" मीरा ने उदास स्वर में कहा।
"ऐसा करते है, कि कुम्भ श्याम के मंदिर के पास एक और मंदिर बनवा दे। वहाँ आप नित्य दर्शन के लिए पधारा करें। मैं भी प्रयत्न करूँगा कि गढ़ में आने वाले संत वहाँ मंदिर में पहुँचे। इस प्रकार मैं भी संत दर्शन करके लाभ ले पाऊंगा और थोडा बहुत ज्ञान मुझे भी मिलेगा।"
"जैसा आप उचित समझें" - मीरा ने प्रसन्नता से कहा।
महाराणा (मीरा के ससुर) का आदेश मिलते ही मंदिर बनना आरंभ हो गया। अन्त: पुर में मंदिर का निर्माण चर्चा का विषय बन गया।
"महल में स्थान का संकोच था क्या?"
"यह बाहर मंदिर क्यूँ बन रहा है?"
"अब पूजा और गाना-बजाना बाहर खुले में होगा?"
"सिसौदियों का विजय ध्वज तो फहरा ही रहा है. अब भक्ति का ध्वज फहराने के लिए यह भक्ति स्तम्भ बन रहा है।"
जितने मुहँ उतनी बातें। मंदिर बना और शुभ मुहूर्त में प्राण-प्रतिष्ठा हुई। धीरे धीरे, सत्संग की धारा बह चली। उसके साथ ही साथ मीरा का यश भी शीत की सुनहरी धूप - सा सुहावना हो कर फैलने लगा। मीरा के मंदिर पधारने पर उसके भजन और उसकी ज्ञान वार्ता सुनने के लिए भक्तो संतो का मेला लगने लगा। बाहर से आने वाले संतो के भोजन, आवास और आवश्यकता की व्यवस्था भोजराज की आज्ञा से जोशीजी करते।
गुप्तचरों से मन्दिर में होने वाली सब गतिविधियों की बातें महाराणा बड़े चाव से सुनते ।कभीकभी वे सोचते -" बड़ा होना भी कितना दुखदायी है ? यदि मैं महाराणा याँ मीरा का ससुर न होता , मात्र कोई साधारण जन होता तो सबके बीच बैठकर सत्संग - सुधा का मैं भी निसंकोच पान करता ।मैं तो ऐसा भाग्यहीन हूं कि अगर मैं वेश भी बदलूँ तो पहचान लिया जाऊँगा ।"
जैसेजैसे बाहर मीरा का यश विस्तार पाने लगा , राजकुल की स्त्री -समाज उनकी निन्दा में उतना ही मुखर हो उठा ।किन्तु मीरा इन सब बातों से बेखबर अपने पथ पर दृढ़तापूर्वक पग धरते हुये बढ़ती जा रही थी। उन्हें ज्ञात होता भी तो कैसे ? भोजराज सचमुच उनकी ढाल बन गये थे परिवार के क्रोध और अपवाद के भाले वे अपनी छाती पर झेल लेते ।
क्रमशः ...................
|| मीरा चरित ||
(40)
क्रमशः से आगे.................
इन्हीं दिनों रत्नसिंह का विवाह हो गया और रनिवास की स्त्रियों का ध्यान मीरा की ओर से हटकर नवविवाहिता वधू की ओर जा लगा ।
एक दिन भोजराज और रत्नसिंह दोनों भाई बैठे हास परिहास कर रहे थे ।रत्नसिंह ने बहुत दिनों के बाद भाई को यूँ खुले मन से हंसते हुये देखा तो बहुत प्रसन्न हुआ । एक प्रश्न जो उसके मन में कई दिन से खटक रहा था,उसने,स्नेह से पर आदर और अधिकार से पूछ ही डाला ," उस दिन आपने झूले पर भाभीसा का नाम आकाश का फूल क्यों कहा ?"
रत्नसिंह भाई के मुख पर आने वाले उतार चढ़ाव का निरीक्षण करते रहे और कहने लगे ,"भाई ! साहित्य की समझ के अनुसार तो इसका अर्थ तो है सुन्दर पर अप्राप्य ।"
भोजराज के नेत्र भी भाई की स्नेह पूर्ण जिज्ञासा देख सजल हो गये ।न न करते भी उन्होंने कह दिया ," यदि तुम्हें ज्ञात हो जाये कि जिस को तुम ब्याह कर लाये हो , वह पर-स्त्री है तो तुम क्या करोगे ?"
" पर-स्त्री ? पर कैसे ? क्या मेड़ते वालो ने धोखा किया हमारे साथ ?"
भोजराज ने भाई को शांत करते हुये उसे विवाह से पहले मीरा को श्याम कुन्ज में ठाकुर के समक्ष वचन देने की बात से लेकर द्वारिका से आये पड़ले तक का विवरण बताया ।
रत्नसिंह के तो पाँवो तले ज़मीन खिसक गई ।उसके आँसू रूकते न रूक रहे थे ।कभी वह अपने भाई की वचनबद्धता, महानता और विवशता का सोचता और कभी मीरा की भक्ति के स्वरूप का चिन्तन करता ।
" यहाँ से गया पड़ला ज्यों का त्यों रखा है ,और द्वारिका के वस्त्राभूषण इतने मूल्यवान हैं कि अनुमान भी लगाना कठिन है ।मैंने दोनों ही देखे है । अभी तीज की रात्रि में भी ठाकुर जी पधारे थे ।"
" आपने देखा क्या उन्हें ?" आश्चर्य से रत्नसिंह ने कहा ।
"नहीं , मुझे दर्शन तो नहीं हुये , पर जो कुछ देख पाया उससे लग रहा था कि कोई तीसरा भी वहाँ था ।"
रत्नसिंह ने साहस से अपना भाव समेटा और कहा," ठीक है, स्थिति पर जो आपने किया वह सबके बस का नहीं और अतुलनीय है , पर अभी भी क्या कठिनाई है , हाँ भाभीसा सी अनिन्द्य सुन्दरी न सही, इनसे कुछ न्यून तो मिल ही सकती है ।"
भोजराज का स्वर भारी हो गया-" इतना स्नेह करते हो अपने भाई से ? सभी बातों का समाधान कर रहे हो, तो बताओ , इस मन का भी क्या समाधान करूँ जो पहले दिन से ही तुम्हारी भाभीसा के चरणों से बँध गया है ।और उन्हें अपनी स्वामिनी मान उनकी प्रसन्नता में ही अपना भाग्य मानता है ।"
रत्नसिंह स्वयं को सम्भाल नहीं पाये और भाई की गोद में सिर रख सिसकने लगे ।कुछ अश्रु बिन्दु भोजराज की आँखों से ढलक कर रत्नसिंह के केशों में कहीं उलझ से गये ।पर शीघ्र ही उन्होंने अपने को सँभाल लिया ।
"भाई ! चित्तौड़ के राजकुवंर यूँ तन - मन की पीड़ा से नहीं रोते ।"वह रत्नसिंह की आँखों में देखकर मुस्कुराये - " हम कर्तव्य ,प्रजा , देश ,धर्म की सम्पत्ति है ।हम अपने लिए नहीं जीते मरते ।इसलिए हमारा जीवन धरोहर और मृत्यु मंगल उत्सव होती है ।ऐसी दुर्बलता हमें शोभा नहीं देती । उठो, चले ।और ध्यान रहे , आज की बातचीत यहीं गाढ़ देना , इतनी गहरी कि कभी ऊपर नहीं आये ।"
क्रमशः ...................
|| मीरा चरित ||
(41)
क्रमशः से आगे ...................
मीरा का अधिकांश समय भावावेश में ही बीतने लगा ।विरहावेश में उसे स्वयं का ज्ञान ही न रहता ।ग्रंथों के पृष्ठ - पृष्ठ - में वह अपने लिए ठाकुर का संकेत पाने का प्रयास करती ।कभी ऊँचे चढ़कर पुकारने लगती और कभी संकेत कर पास बुलाती ।कभी हर्ष के आवेश में वह इस प्रकार दौड़ती कि भूल ही जाती कि सम्मुख सीढ़ियाँ है ।कई बार टकराकर वह ज़ख्मी हो जाती ।दासियाँ साथ तो रहती पर कभीकभी मीरा की त्वरा का साथ देना उनके लिए असम्भव हो जाता ।
जो मीरा की मनोस्थिति समझते , वे उसकी सराहना करते , उसकी चरण - रज सिर पर चढ़ाते ।नासमझ लोग हँसते और व्यंग्य करते ।भोजराज देखते कि होली के उत्सव के दिनों में महल में बैठी हुई मीरा की साड़ी अचानक रंग से भीज गई है , और वह चौंककर ' अरे' कहती हुई भाग उठती किसी अनदेखे से उलझने के लिए ।कभी वे छत पर टहल रहे होते और अन्जाने में ही किसी और से बातें करने लग जाती ।कभी ऐसा भी लगता कि किसी ने मीरा की आँखें मूँद ली हो , और ऐसे किसी का हाथ थामकर वह चम्पा , पाटला ,विद्या ये अनसुने नाम लेकर थककर कहती "श्री किशोरीजू !" और पीछे घूम कर आनन्द विह्वल होकर कह उठती - "मेरे प्राणधन ! मेरे श्यामसुन्दर !"
भोजराज के आदेश से चम्पा उनके मुख से निर्झरित भजनों को एक पोथी में लिखती जाती । भोजराज को मीरा की अत्यधिक चिन्ता हो जाती ।जब भी वह कहीं बाहर जाते , वापिसी पर उनका अश्व तीव्र गति से भाग छूटता ।सौ सौ शंकाये सिर उठाकर उन्हें भयभीत कर देती - कहीं वह झरोखे से न गिर पड़ी हो ? कहीं कोई कुछ खिला पिला न दें ,वह सब पर सरलता से विश्वास कर लेती है ।उस दिन भीत से टकरा गई थी तो मस्तक से रक्त बहने लगा था ।अब जाकर न जाने किस अवस्था में पाऊँगा ? मीरा की सुरक्षा की चिन्ता में , भोजराज का उनमें मोह बढ़ने लगा ।
जिस दिन भोजराज विजय प्राप्त कर लौटते तो ठाकुर को कई मिष्ठान्न भोग लगते और दास दासियों को पुरस्कार मिलते ।
एक दिन भोजराज कहने लगे ," आपका पूजा - पाठ , सत्संग और भावावेश देखता हूँ , तो बुद्धि कहती है कि यह सब निरर्थक नहीं है ।किन्तु इतने पर भी ईश्वर पर विश्वास नहीं होता ।मैं विश्वास करना तो चाहता हूँ - पर अनुभव के बिना विश्वास के पैर नहीं जमते ।"
" कोई विशेष प्रश्न हो तो बतायें ?शायद मैं कुछ समाधान कर पाऊँ ?" मीरा ने कहा ।
" नहीं , बस यही कि कहाँ है ? किसने देखा है ?और है तो क्या प्रमाण है ?मैं कोशिश तो करता हूँ अपने को समझाने की पर देखिए बिना विश्वास के की गई साधना अपने को और अन्य को धोखा देना है ।"
" पहले आप मुझे बतलाईये कि आपको क्या कठिनाई होती है ?" मीरा ने पूछा ।
" आपको बुरा लगेगा ।" भोजराज ने संकोच से कहा - " बहुत प्रयत्न के पश्चात भी ध्यान में सम्मुख मूर्ति ही सिंहासन पर दिखाई देती है ।बस केवल एक बार दर्शन की लालसा..............।"
" पर क्या आप प्रभु का स्मरण करते है ?""मीरा ने पूछा ।
"सुना है , भगवान भक्तों की बात नहीं टालते ।तब तो आपकी कृपा ही कुछ कर दिखाये तो बात सफल हो , अन्यथा आप सत्य मानिये , मेरे नित्य नियम केवल नीरस होकर रह गये है । मैं जीवन से निराश सा होता जा रहा हूँ - " कहते कहते भोजराज की आँखें भर आई ।वे दूसरी ओर देख अपने आँसूओं को छिपाने का प्रयत्न करने लगे ।
क्रमशः ...................
|| मीरा चरित ||
(42)
क्रमशः से आगे ...................
भोजराज एकलिंगनाथ के उपासक थे ।मीरा की भक्ति के भाव में बहते बहते उनके अपने नियम तो यूँ के यूँ धरे रह गये थे।और मीरा को व्यावहारिक और पारिवारिक रूप से भोजराज के रूप में एक ऐसी ढाल मिल गई थी जो उसके और जगत के मध्य खड़ी थी , सो मीरा की भक्ति भाव का राज्य विकसित हो रहा था । मीरा तो गिरधर की प्रीति के साथ ही बड़ी हुईं थी - सो उसके लिये यह सब अनुभव स्वाभाविक भी थे और सहज भी ।पर भोजराज के लिए सब परिवेश नया था ।आँखें , जो देख रही थी - मन उस पर विश्वास करना तो चाहता पर स्वयं कुछ भी व्यक्तिगत अनुभव के आभाव से वह विश्वास कुछ देर के बाद डाँवाडोल हो जाता ।
सो भोजराज की भक्ति की स्थिति परिपक्व न होने के कारण उसे सही दिशा नहीं मिल रही थी ।और वह इसी कारण जीवन से निराश सा हो मीरा से कृपा की याचना कर रहे है ।
" क्या मेरी प्रसन्नता के लिए भी आप प्रभु का स्मरण नहीं कर सकते ।" मीरा ने पूछा ।
" वही तो करने का प्रयत्न कर रहा हूँ अब तक ।जैसे श्रीगीता जी में वर्णित है कि विराट पुरुष की देह में ही संसार है, वैसे ही आपकी पृष्ठभूमि में मुझे अपना कर्तव्य , राजकार्य दिखाई देते है, किन्तु कभी भगवान नहीं दिखाई देते ।"
दृढ़ संकल्प हो तो मनुष्य के लिए दुर्लभ क्या है ? "मीरा ने गम्भीरता से कहा - " देखिये मेरे मन में आपका बहुत मान-सम्मान है ।पर मैं आपके सांसारिक विषयों के बीच ढाल की तरह आ गईं हूं ।अब वह सब आपको प्राप्त नहीं हो सकते ।दूसरा विवाह आपको स्वीकार नहीं है ।तो चलना तो अब भगवद अराधना के पथ पर ही होगा ।"
" मैं कब इस पथ पर चलने से इन्कार कर रहा हूँ ।किन्तु अँधेरे में पथ टटोलते - टटोलते थक गया हूँ अब तो ।आप कृपा करें याँ कोई सीधा सादा मार्ग बतलाईये" भोजराज ने हताश स्वर में कहा ।
" हमें कहीं जाना हो, पर हम पथ नहीं जानते ।किसी से पूछने पर जो पथ उसने बताया , तो उस पथ पर चलने के बदले हम पथ बताने वाले को ही पकड़ लें और समझ लें कि हमें तो गन्तव्य ( मंजिल ) मिल गया , क्या कहेंगे उसे आप , मूर्ख याँ बुद्धिमान ? मैं होऊँ याँ कोई और , आपको पथ ही सुझा सकते है ।चलना तो , करना तो आपको ही पड़ेगा ।गुरु बालक को अक्षर बता सकते है , उसको घोटकर तो नहीं पिला सकते ।अभ्यास तो बालक को स्वयं ही करना पड़ेगा ।" मीरा ने गम्भीर स्वर से कहा ।
मीरा ने समझाते हुये फिर कहा," देखिये , अगर संसार में याँ उसकी किसी भी वस्तु में महत्व बुद्धि है , तब तक ईश्वर का महत्व या उसका अभाव बुद्धि - मन में नहीं बैठेगा ।जब तक अभाव न जगे, प्राणप्रण से उसके लिए चेष्टा भी न होगी ।आसक्ति अथवा मोह ही समस्त बुराइयों की जड़ है ।"
" आसक्ति किसे कहते है ?" भोजराज ने पूछा ।
" हमें जिससे मोह हो जाता है, उसके दोष भी गुण दिखाई देते है ।उसे प्रसन्न करने के लिए कैसा भी अच्छा - बुरा काम करने को हम तैयार हो जाते है ।हमें सदा उसका ध्यान बना रहता है ।उसके समीप रहने की इच्छा होती है ।उसकी सेवा में ही सुख जान पड़ता है ।यदि यही मोह अथवा आसक्ति भगवान में हो तो कल्याण कारी हो जाती है क्योंकि हम जिसका चिन्तन करते है उसके गुण - दोष हममें अन्जाने में ही आ जाते है ।अतः जिसकी आसक्ति भक्त में होगी , वह भी भक्त हो जायेगा ।क्योंकि अगर उसकी आसक्ति का केन्द्र भक्त सचमुच भक्त है तो वह अपने अनुगत को सच्ची भक्ति प्रदान कर ही देगा ।गुरु - भक्ति का रहस्य भी यही है ।गुरु की देह भले पाञ्चभौतिक हो , उसमें जो गुरु तत्व है , वह शिव है ।गुरु के प्रति आसक्ति अथवा भक्ति उस शिव तत्व को जगा देती है, उसी से परम तत्त्व प्राप्त हो जाता है ।गुरु और शिष्य में से एक भी यदि सच्चा है तो दोनों का कल्याण निश्चित है ।"
" यदि भक्त में आसक्ति होने से कल्याण संभव है तो फिर मुझे चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती ।आप परम भक्तिमती है और मुझमें आसक्त के सभी लक्षण जान पड़ते है" भोजराज ने संकोच से सिर झुकाते हुये कहा ।
क्रमशः .....................
|| मीरा चरित ||
(43)
क्रमशः से आगे...............
मीरा ने भोजराज को आसक्ति के बारे में बताया कि यों तो आसक्ति बुराइयों की जड़ है , पर अगर यही आसक्ति भक्ति याँ किसी सच्चे भक्त में हो जाये तो कल्याणकारी हो सकती है ।
" यदि भक्त में आसक्ति होने से कल्याण सम्भव है तो फिर मुझे चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं ।आप परम भक्तिमती है और मुझमें आसक्त के सारे लक्षण जान पड़ते है," भोजराज ने संकोच से कहा ।
" मनुष्य का जीवन बाजी जीतने के लिए मिलता है ।कोई हारने की बात सोच ही ले तो फिर उपाय क्या है ?" मीरा ने कहा ।
" विश्वास की बात न फरमाइयेगा ।वह मुझमें नहीं है ।उसके लिए तो आपको ही मुझ पर दया करनी पड़ेगी । मेरे योग्य कोई सरल उपाय हो तो बताने की कृपा करें ।"
भगवान का जो नाम मन को भाये, उठते - बैठते ,चलते-फिरते और काम करते लेते रहे ।मन में प्रभु का नाम लेना अधिक अच्छा है, किन्तु मन धोखा देने के अनेक उपाय जानता है ।बहुत बार साँस की गति ही ऐसी हो जाती है कि हमें जान पड़ता है कि मानों मन नाम ले रहा है ।अच्छा है ,आरम्भ मुख से ही किया जाये ।इसके साथ ही यदि सम्भव हो तो जिसका नाम लेते है, उसकी छवि का , रूप माधुरी का ध्यान किया जाये , उसकी लीला माधुरी के चिन्तन की चेष्टा की जाये ।एक तो इस प्रकार मन खाली नहीं रहेगा और दूसरे मन में उल्टे सीधे विचार नहीं आ पायेंगे ।"
" जी ! अब ऐसा ही प्रयत्न करूँगा ।"भोजराज ने समझते हुये कहा ।
भोजराज किसी राज्य के कार्य से उठकर गये तो देवर रत्नसिंह भाई को ढूढँते इधर आ निकले । उस दिन भाई से हुई वार्ता के पश्चात रत्नसिंह की दृष्टि में अपनी भाभीसा का स्वरूप पहले से कहीं अधिक सम्माननीय एवं पूजनीय हो गया था ।मीरा ने झटपट दासियों की सहायता से जलपान और दूसरे मिष्ठान्न स्नेह से दिए ।" अरोगो लालजीसा !इस राजपरिवार में अपनी भौजाई को 'औगणो' ही समझ लीजिए । गिरधरलाल की सेवा में रहने के कारण अधिक कहीं आ जा नहीं पाती ।भली-बुरी जैसी भी हूँ , आप सभी की दया है , निभा रहे हैं ।"
" ऐसा क्यों फरमाती हैं आप ? " रत्नसिंह ने प्रसाद लेते हुये कहा ।" हमारा तो सौभाग्य है कि हम आपके बालक है ।लोग तीर्थों और भक्तों के दर्शन के लिए दूर दूर तक भटकते फिरते है ।हमें तो विधाता ने घर बैठे ही आपके स्वरूप में तीर्थ सुलभ कराये है ।मेरा तो आपसे हाथ जोड़ कर यही निवेदन है कि जो आपको न समझ पाये और जो कोई कुछ कह भी दे, तो उन्हें नासमझ मानकर आप उनपर कृपा रखिये ।"
" यह क्या फरमाते है आप ? किसपर नाराज़ होऊँ लालजीसा ! अपने ही दाँतों से जीभ कट जाये तो क्या हम दाँतों को तोड़ देते है ? सृष्टि के सभी जन मेरे प्रभु के ही सिरजाये हुये ही तो है ।इनमें से किसको बुरा कहूँ ?"
रत्नसिंह ने स्नेह से अपनी अध्यात्मिक जिज्ञासा रखते हुये कहा ," एक बात पूँछू भाभीसा हुकम ? अगर समस्त जगत ईश्वर से ही बना है, तो आप गिरधर गोपाल की मूर्ति के प्रति ही इतनी समर्पित क्यूँ है ? हम सबमें भी उतना ही भगवान है जितना उस मूर्ति में, फिर उसका इतना आग्रह क्यों और दूसरों की इतनी उपेक्षा क्यों ?संतों के साथ का उत्साह क्यों , और दूसरों के साथ का अलगाव का भाव क्यों ?"
"आखिर मेवाड़ के राजकुवंर मतिहीन कैसे होंगे ?"मीरा हँस दी - " बहुत सुन्दर प्रश्न पूछा है आपने लालजीसा ।जैसे इस सम्पूर्ण देह की रग रग में आप है और इसका कोई भी अंग आपसे अछूता नहीं - इतने पर भी आप सभी अंगों और इन्द्रियों से एक सा व्यवहार नहीं करते ।ऐसा क्यों भला ? आपको कभी अनुभव हुआ कि पैरों से मुँह जैसा व्यवहार न करके उनकी उपेक्षा कर रहे है ? गीता में भी भगवान ने समदर्शन का उपदेश दिया है समवर्तन का नहीं ।चाहने पर भी हम वैसा नहीं कर सकेंगे ।वैसे भी यह जगत सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों का विकार है ।इन तीनों के समन्वय से ही पूर्ण सृष्टि का सृजन हुआ है ।"
रत्नसिंह धैर्य से भाभीसा का कहा एक एक शब्द का भावार्थ ह्रदयंगम करते जा रहे थे ।
मीरा ने फिर सहजता से ही कहा ," अच्छा और बुरा क्या है? यह समझना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना यह कि आप उसको कहाँ और किससे जोड़ते है ।रावण और कंस आदि ने तो बुराई पर ही कमर बाँधी और मुक्ति ही नहीं , उसके स्वामी को भी पा लिया ।"
"पर अगर मैं अपनी समझ से कहूँ तो अपने सहज स्वभावानुसार चलना ही श्रेष्ठ है ।ज्ञान , भक्ति और कर्म सरल साधन है । इन्हें अपनाने वाला इस जन्म में नहीं तो अन्य किसी जन्म में अपना लक्ष्य पा ही लेगा ।जैसे छोटा बालक उठता - गिरता - पड़ता अंत में दौड़ना सीख ही लेता है , वैसे ही मनुष्य सत् के मार्ग पर चलकर प्रभु को पा ही लेता है ।"
रत्नसिंह मन्त्रमुग्ध सा मीरा के उच्चारित प्रत्येक शब्द का आनन्द ले रहा था और अन्जाने में ही मीरा की प्रेम भक्ति धारा में एक और सूत्र जुड़ता जा रहा था - और रत्नसिंह भी चाहे बेखबर ही , पर इस भक्ति पथ पर अग्रसर होने का शुभारम्भ कर चुका था ।
क्रमशः ...................
|| मीरा चरित ||
(44)
क्रमशः से आगे ............
मीरा अधिक समय अपने भावावेश में ही रहती । एक रात्रि अचानक मीरा के क्रन्दन से भोजराज की नींद उचट गई ।वे हड़बड़ाकर अपने पलंग से उठे और भीतरी कक्ष की और दौड़े जहाँ मीरा सोई थी ।
" क्या हुआ ? क्या हुआ ? " कहते कहते वे भीतर गये । पलंग पर औंधी पड़ी मीरा पानी में से निकाली भाँति तड़फड़ा रही थी ।हिल्कियाँ ले लेकर वह रो रो रही थी ।बड़ी बड़ी आँखों से आँसुओं के मोती ढलक रहे थे ।
भोजराज मन में ही सोचने लगे -" आज इनकी वर्षगाँठ और शरद पूनम की महारास का दिन होने से दो - दो उत्सव थे ।मीरा का आज हर्ष उफना पड़ता था । आधी रात के बाद तो सब सोये ।अचानक क्या हो गया ?"
उन्होंने देखा कि मीरा की आकुल व्याकुल दृष्टि किसी को ढूँढ रही है ।झरोखे से शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा अपनी शीतल किरणें कक्ष में बिखेर रहा था ।
भोजराज अभी समझ नहीं पा रहे थे कि वह क्या करें , कैसे धीरज बँधाये , क्या कहे ? तभी मीरा उठकर बैठ गई और हाथ सामने फैला कर वह रोते हुए गाने लगी ..........
🌿पिया कँहा गयो नेहड़ा लगाय ।
छाड़ि गयो अब कौन बिसासी,
प्रेम की बाती बलाय ।
🌿बिरह समँद में छाँड़ि गयौ हो ,,
नेह की नाव चलाय ।
🌿मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे ,
तुम बिन रह्यो न जाय ।
क्रमशः ...................
🙏🏼🌹 राधे राधे 🌹🙏🏼
.
✍🏽 WhatsApp या Facebook पर मीरा चरित का यह जो प्रसंग आता है, भाग 1 से लेकर भाग 123 तक, यह संक्षेप में है। जो मुख्य रूप से पुस्तक से लेकर लिखा गया है। लेकिन पुस्तक में और विस्तार से लिखा हुआ है और भी बहुत सारे प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे, जो कि बहुत ही रोचक है, भावुक कर देने वाला प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे। इसलिए निवेदन है कि मीरा चरित पुस्तक जरूर पढ़ें। और यदि आप पुस्तक मंगवाना चाहते हैं तो आप इस पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।
श्री राधे...