मीरा चरित (भाग 45 से भाग 50 तक)

|| श्रीकृष्ण ||
|| मीरा चरित ||
(45)
क्रमशः से आगे ................

पद के गान का विश्राम हुआ तो मीरा दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर फफक फफक कर रोने लगी ।भोजराज समझ नहीं पाये कि क्या करें , कैसे धीरज बँधाये , क्या कहें ?

इससे पहले वह कुछ सोच पाते , वह पछाड़ खाकर धरती पर गिर पड़ी ।भोजराज घबराकर उन्हें उठाने के लिए बढ़े , नीचे झुके परन्तु अपना वचन और मर्यादा का सोच ठिठक गये ।तुरन्त कक्ष से बाहर जाकर उन्होंने मिथुला को पुकारा ।उसने आकर अपनी स्वामिनी को संभाला ।
ऐसे ही मीरा पर कभी अनायास ही ठाकुर से विरह का भाव प्रबल हो उठता ।एक ग्रीष्म की रात्रि में, छत पर बैठे हुये भोजराज की अध्यात्मिक जिज्ञासा का समाधान मीरा कर रही थी ।कुछ ही देर में भोजराज का अनुभव हुआ कि उनकी बात का उत्तर देने के बदले मीरा दीर्घ श्वास ले रही है ।"क्या हुआ ? आप स्वस्थ तो है ?" भोजराज ने पूछा ।तभी कहीं से पपीहे की ध्वनि आई तो ऐसा लगा जैसे बारूद में चिन्गारी पड़ गई हो ।वह उठकर छत की ओट के पास चली गई ।रूँधे हुये गले से कहने लगी.............

🌿पपइया रे ! कद को बैर चितार्यो ।
मैं सूती छी भवन आपने पिय पिय करत पुकार्यो॥
दाझया ऊपर लूण लगायो हिवड़े करवत सार्यो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणा चित धार्यो॥🌿

"म्हें थारो कई बिगाड़यो रे पंछीड़ा ! क्या तूने मेरे सिये घाव उधेड़े ? 
क्यों मेरी सोती पीर जगाई ? 
अरे हत्यारे ! अगर तुम विरहणी के समक्ष आकर "पिया पिया" बोलोगे तो वह तुम्हारी चौंच न तोड़ डालेगी क्या ?"

फिर अगले ही क्षण आशान्वित हो कहने लगी ," देख पपीहरे ! अगर तुम मेरे गिरधर के आगमन का सुहावना संदेश लेकर आये हो तो मैं तेरी चौंच को चाँदी से मढ़वा दूँगी ।" फिर निराशा और विरह का भाव प्रबल हो उठा -" पर तुम मुझ विरहणी का क्यूँ सोचोगे ? मेरे पिय दूर हैं ।वे द्वारिका पधार गये , इसी से तुझे ऐसा कठोर विनोद सूझा ? श्यामसुन्दर ! मेरे प्राण ! देखतें है न आप इस पंछी की हिम्मत ? आपसे रहित जानकर ये सभी जैसे मुझसे पूर्व जन्म का कोई बैर चुकाने को उतावले हो उठे है ।पधारो पधारो मेरे नाथ ! यह शीतल पवन मुझे सुखा देगा , यह चन्द्रमा मुझे जला देगा ।अब और......... नहीं .......सहा........ जाता .....नहीं.......स......हा.....जा.......ता ।"

भोजराज मीरा का प्रभु विरहभाव दर्शन कर अवाक हो गये ।तुरन्त चम्पा को बुला कर, मीरा को जल पिलाया ,उन्हे पंखा करने को कहा । भोजराज मन में सोचने लगे - " मुझ अधम पर कब कृपा होगी प्रभु ! कहते है भक्त के स्पर्श से ही भक्ति प्रकट हो जाती है , पर भाग्यहीन भोज इससे भी वंचित है ।"

भोजराज ने मंगला और चम्पा को आज्ञा दी कि अब से वे अपनी स्वामिनी के पास ही सोया करें ।और स्वयं वह दूसरी ओर चले गये । मीरा की दासियाँ उसका विरहावेश समझती थी...... और उसे स्थिति अनुसार संभालती भी थी ।पर मीरा के नेत्रों में नींद कहाँ थी...... वह फिर हाथ सामने बढ़ा गाने लगी........

🌿हो रमैया बिन ,नींद न आवै ।
विरह सतावे................🌿

क्रमशः ................

|| मीरा चरित ||
(46)
क्रमशः से आगे .................

मीरा की अवस्था कभी दो-दो दिन और कभी तीन-चार दिनों तक भी सामान्य नहीं रहती थी ।वे कभी तो भगवान से मिलने के हर्ष और कभी विरह के आवेश में जगत और देह की सुध को भूली रहती थी । कभी यूँ ही बैठे बैठे खिलखिला कर हँसती , कभी मान करके बैठी रहती और कभी रोते रोते आँखें सुजा लेती ।यदि ऐसे दिनों में भोजराज को चित्तौड़ से बाहर जाने का आदेश मिलता तो-यूँ तो वह रण में प्रसन्नता से जाते पर मीरा के आवेश की चिन्ता कर उनके प्राणों पर बन आती ।

आगरा के समीप सीमा पर भोजराज घायल हो गये ।सम्भवतः शत्रु ने विष बुझे शस्त्र का प्रहार किया था ।राजवैद्य ने दवा भरकर पट्टियाँ बाँधी । औषधि पिलाई और लेप किये जाने से धीरेधीरे घाव भी भरने लगा।

एक शीत की रात्रि ।कुवँर अपने कक्ष में और मीरा भीतर अपने कक्ष में थी ।रात्रि काफी बीत चुकी थी , पर घाव में चीस के कारण भोजराज की नींद रह-रह करके खुल जाती ।वे मन ही मन श्रीकृष्ण ,श्रीकृष्ण , श्रीकृष्ण नाम जप कर रहे थे ।

उन्हें मीरा के कक्ष से उसकी जैसे नींद में बड़बड़ाने की आवाज़ सुनाई दी । मीरा खिलखिला कर हँसती हुई बोली ," चोरजारपतये नम: ,आप तो सब चोरों के शिरोमणि है । पर आपका यह न्यारा रस-रूप ही मुझे भाता है ।रसो वै स: ।आप तनिक भी मेरी आँखों से दूर हो - मुझसे सहा नहीं जाता ।"

भोजराज ने अपने पलंग से ही बैठे - बैठे देखा - मीरा भी बैठकर बातें कर रही थी , पर जाग्रत अवस्था में हो ऐसा नहीं प्रतीत हो रहा था।उन्हें लगा मीरा प्रभु से वार्तालाप कर रही है ।भोजराज को थोड़ी देर तक झपकी आ गई तो वह सो गये ।

श्यामसुन्दर ! मेरे नाथ !! मेरे प्राण !!! आप कहाँ है ? इस दासी को छोड़ कर कहाँ चले गये ?"

भोजराज की नींद खुल गई ।उन्होंने देखा कि मीरा श्यामसुन्दर को पुकारती हुई झरोखे की ओर दौड़ी ।भोजराज ने सोचा कि कहीं झरोखे से टकराकर ये गिर जायेंगी - तो उन्होंने चोट की आशंका से चौकी पर पड़ी गद्दी उठाकर आड़ी कर दी ।पर मीरा तो अपनी भाव तरंग में उस झरोखे पर ही चढ़ गई । मीरा ने भावावेश में हाथ के एक ही झटके से झरोखे से पर्दा हटाया और बाँहें फैलाये हुये ' मेरे प्रभु ! मेरे सर्वस्व !! कहती हुई एक पाँव झरोखे के बाहर बढ़ा दिया ।सोचने का समय भी नहीं था , बस पलक झपकते ही उछलकर भोजराज झरोखे में चढ़े और शीघ्रता से मीरा को भीतर कक्ष में खींच लिया ।एक क्षण का भी विलम्ब हो जाता तो मीरा की देह नीचे चट्टानों पर गिरकर बिखर जाती ।

मीरा अचेतन हो गई थी ।उसकी देह को उठाये हुये वे नीचे उतरे ।भोजराज ने ममता भरे मन से उन्हें उनके पलंग पर रखा- मीरा के अश्रुसिक्त चन्द्रमुख पर आँसुओं की तो मानों रेखाएँ खिंच गई थी ।तभी " ओह म्हाँरा नाथ ! तुम्हारे बिना मैं कैसे जीवित रहूँ ?"

मीरा के मुख से ये अस्फुट शब्द सुनकर भोजराज मानों चौंक उठे , जैसे नींद से वे जागे हों ......".यह .........यह क्या किया मैंने ?" क्या किया ? मैं अपने वचन का निर्वाह नहीं कर पाया ।मेरा वचन टूट गया ।"

क्रमशः ...................

|| मीरा चरित ||
(47)
क्रमशः से आगे ..................

वचन टूटने के पछतावे से भोजराज का मन तड़प उठा ।प्रातःकाल सबने सुना कि महाराजकुमार को पुनः ज्वर चढ़ आया है ।बाँह का सिया हुआ घाव भी उधड़ गया ।फिर से दवा - लेप सब होने लगा , किन्तु रोग दिन-दिन बढ़ता ही गया ।यों तो सभी उनकी सेवा में एक पैर पर खड़े रहते थे , किन्तु मीरा ने रात-दिन एक कर दिया ।उनकी भक्ति ने मानों पंख समेट लिए हो ।पूजा सिमट गई और आवेश भी दब गया ।

भोजराज बार बार कहते ," आप आरोग लें ।अभी तक आप विश्राम करने नहीं गईं ? मैं अब ठीक हूँ - अब आप विश्राम कर लीजिए ।अभी पीड़ा नहीं है ।आप चिन्ता न करें ।"
 
मीरा को नींद आ जाती तो भोजराज दाँतों से होंठ दबाकर अपनी कराहों को भीतर ढकेल देते ।
ऐसे ही कितने दिन - मास निकलते गये ।पर भोजराज की स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ ।फिर भी मुस्कुराते हुये एक दिन उत्सव का समय जान कहने लगे ," आज तो वसंत पंचमी है ।ठाकुर जी को फाग नहीं खेलायी ? क्यों भला ? आप पधारिये , उन्हें चढ़ाकर गुलाल का प्रसाद मुझे भी दीजिये ।"

एक दो दिनों के बाद उन्होंने मीरा से कहा - आज सत्संग क्यों रोक दिया ।? यह तो अच्छा नहीं हुआ । आप पधारिये , मैं तो अब ठीक हो गया हूँ ।" वे कहते ,मुस्कराते पर उनके घाव भर नहीं रहे थे ।
" आपसे कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ मैं " एक दिन एकान्त में भोजराज ने मीरा से कहा ।
" जी फरमाईये " समीप की चौंकी पर बैठते हुये मीरा ने कहा ।

" मैं आपका अपराधी हूँ ।मेरा आपको दिया वचन टूट गया " भोजराज ने अटकती वाणी में नेत्र नीचे किए हुये कहा - " आप जो भी दण्ड बख्शें , मैं झेलने को प्रस्तुत हूँ ।केवल इतना निवेदन है कि यह अपराधी अब परलोक - पथ का पथिक है ।अब समय नहीं रहा पास में ।दण्ड ऐसा हो कि यहाँ भुगता जा सके ।अगले जन्म तक ऋण बाक़ी न रहे ।" उन्होंने हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से मीरा की ओर देखा ।

" अरे, यह क्या ? आप यूँ हाथ न जोड़िये ।" फिर गम्भीर स्वर में बोली - " मैं जानती हूँ ।उस समय तो मैं अचेत थी, किन्तु प्रातः साड़ी रक्त से भरी देखी तो समझ गई कि अवश्य ही कोई अटक आ पड़ी होगी ।इसमें अपराध जैसा क्या हुआ भला ?"

अटक ही आ पड़ी थी " भोजराज बोले - याँ तो आपको झरोखे से गिरते देखता याँ वचन तोड़ता ।इतना समय नहीं था कि दासियों को पुकारकर उठाता ।क्यों वचन तोड़ा , इसका तनिक भी पश्चाताप नहीं है, किन्तु भोज अंत में झूठा ही रहा........ ।" भोजराज का कण्ठ भर आया ।तनिक रूक कर वे बोले ," दण्ड भुगते बिना यह बोझ मेरे ह्रदय पर रहेगा ।"

" देखिये , मेरे मन में तनिक भी रोष नहीं है ।मैं तो अपने 
ही भाव में बह गिर रही थी - तो मरते हुये को बचाना पुण्य है कि पाप ? मेरी असावधानी से ही तो यह हुआ ।यदि दण्ड मिलना ही है तो मुझे मिलना चाहिए , आपको क्यों ?"

" नहीं ,नहीं ।आपका क्या अपराध है इसमें ?"भोजराज व्याकुल स्वर में बोले - " हे द्वारिकाधीश ! ये निर्दोष है ।खोटाई करनहार तो मैं हूँ ।तेरे दरबार में जो भी दण्ड तय हुआ हो ,वह मुझे दे दो ।इस निर्मल आत्मा को कभी मत दुख देना प्रभु !" भोजराज की आँखों से आँसू बह चले ।

" अब आप यूँ गुज़री बातों पर आँसू बहाते रहेंगे तो कैसे स्वस्थता लाभ करेगें ? आप सत्य मानिये , मुझे तो इस बात में अपराध जैसा कुछ लगा ही नहीं " मीरा ने स्नेह से कहा ।

" आपने मुझे क्षमा कर दिया ,मेरे मन से बोझ उतर गया "भोजराज थोड़ा रूक कर फिर अतिशय दैन्यता से बोले ," मैं योग्य तो नहीं, किन्तु एक निवेदन और करना चाहता था ।"

" आप ऐसा न कहे, आदेश दीजिए , मुझे पालन कर प्रसन्नता होगी ।"
" अब अन्त समय निकट है ।एक बार प्रभु का दर्शन पा लेता........... ।"

मीरा की बड़ी बड़ी पलकें मुँद गई ।भोजराज को लगा कि उनकी आँखों के सामने सैकड़ों चन्द्रमा का प्रकाश फैला है ।उसके बीच में खड़ी वह साँवरी मूरत , मानों रूप का समुद्र हो, वह सलोनी छवि नेत्रों में अथाह स्नेह भरकर बोली - " भोज ! तुमने मीरा की नहीं , मेरी सेवा की है ।मैं तुमसे प्रसन्न हूँ ।"

" मेरा अपराध प्रभु !" भोजराज अटकती वाणी में बोले ।
वह मूरत हँसी , जैसे रूप के समुद्र में लहरें उठी हों ।" स्वार्थ से किए गये कार्य अपराध बनते है भोज ! निस्वार्थ से किए गये कार्यों का कर्मफल तो मुझे ही अर्पित होता है ।तुम मेरे हो भोज ! अब कहो, क्या चाहिए तुम्हें ?" उस मोहिनी मूर्ति ने दोनों हाथ फैला कर भोजराज को अपने ह्रदय से लगा लिया ।

आनन्द के आवेग से भोजराज अचेत हो गये ।जब चेत आया तो उन्होंने हाथ बढ़ा कर मीरा की चरण रज माथे चढ़ायी ।पारस तो लोहे को सोना ही बना पाता है, पर यह पारस लोहे को भी पारस बना देता है ।दोनों ही भक्त आलौकिक आनन्द में मग्न थे ।

क्रमशः ...................

|| मीरा चरित ||
(48)
क्रमशः से आगे..............

" रत्नसिंह ! तुम्हारी भाभी का भार मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ ।मुझे वचन दो कि उन्हें कभी कोई कोई कष्ट नहीं होने दोगे ।" एकान्त में भोजराज ने रत्नसिंह से कहा ।

" यह क्या फरमा रहे है आप बावजी हुकम ! " वह भाई के गले लग रो पड़े।
" वचन दो भाई ! अन्यथा मेरे प्राण सहज नहीं निकल पायेंगे ।अब अधिक समय नहीं रहा ।"

रत्नसिंह ने भाई के पाँवो को छूकर रूँधे हुये कण्ठ से बोले - " भाभीसा मेरे लिए कुलदेवी बाणमाता से भी अधिक पूज्य है ।इनका हर आदेश श्री जी (पिता - महाराणा सांघा) के आदेश से भी बढ़कर होगा ।इनके ऊपर आनेवाली प्रत्येक विपत्ति को रत्नसिंह की छाती झेल लेगी ।"

भोजराज ने हाथ बढ़ा कर भाई को छाती से लगा लिया ।दूसरे ही दिन भोजराज ने शरीर छोड़ दिया ।

राजमहल और नगर में उदासी छा गई ।मीरा के नेत्रों में एकबार आँसू की झड़ी लगी और दूसरे दिन ही वह उठकर अपने सदैव के नित्यकर्मों में, ठाकुर जी की सेवा में लग गई ।

कुछ बूढ़ी औरतें कुछ रस्में करने आई तो मीरा ने किसी भी श्रंगार उतारने से मना कर दिया कि मेरे पति गिरधर तो अविनाशी है ।
और जब उन्होंने पूछा ," तो महाराजकुमार भोजराज ?"
मीरा ने कहा," महाराजकुमार तो मेरे सखा थे ।वे मुझे यहाँ ले आये तो मैं आ गई ।अगर आप मुझे वापिस भेजना चाहें तो चली जाऊँगी ।पर मैं अपने पति के रहते चूड़ियाँ क्यूँ उतारूँ?"

बात सबके कान में पहुँची तो एकबार तो सब भन्ना गये ।किन्तु रत्नसिंह ने आकर निवेदन किया - " भाभीसा तो आरम्भ से ही यह फरमाती रही है कि मेरे पति ठाकुर जी है ।अब उन्होंने ऐसा नया क्या कह दिया कि सब बौखलाये-से फिर रहे है ? अगर उन्हें यह सब उचित नहीं लग रहा तो किसी को भी उनसे ज़ोर ज़बरदस्ती करने की कोई आवश्यकता नहीं ।" 

ऐसा कहकर रत्नसिंह ने रनिवास की स्त्रियों को डाँट कर शांत कर दिया ।
जिसने भी सुना ,वह आश्चर्य में डूब गया ।स्त्रियों के समाज में थू थू होने लगी ।उसी दिन से मेड़तणी मीरा परिवार में उपेक्षिता ही नहीं घृणिता भी हो गई ।दूसरी ओर संत समाज में उनका मान सम्मान बढ़ता जा रहा था ।पुष्कर आने वाले संत मीरा के दर्शन-सत्संग के बिना अपनी यात्रा अधूरी मानते थे ।उनके सरल सीधे - सादे किन्तु मार्मिक भजन जनसाधारण के ह्रदय में स्थान बनाते जा रहे थे ।

क्रमशः ...............

|| मीरा चरित ||
(49)
क्रमशः से आगे............

बाबर ने राजपूतों पर हमला बोल दिया ।यही निश्चय हुआ कि मेवाड़ के महाराणा साँगा की अध्यक्षता में सभी छोटे मोटे शासक बाबर से युद्ध करें ।शस्त्रों की झंकार से राजपूती उत्साह उफन पड़ा । सबके दिल में वीर भोजराज का अभाव कसक रहा था ।रत्नसिंह वीर हैं , किन्तु उनकी रूचि कला की ओर अधिक झुकी है ।महाराणा सांगा युद्ध के लिए गये और रत्नसिंह को राज्य प्रबन्ध के लिए चित्तौड़ ही रह जाना पड़ा ।

एक दिन रत्नसिंह ने भाभी से पूछा ," जब संसार में सब मनुष्य भगवान ने बनाए हैं-उनके स्वभाव और रूप गुण कला भी भगवान का ही दिया है तो मनुष्य क्यों मेरा मेरा कर दूसरे को मारता और मरता है ? मनुष्य को मारना कहाँ का धर्म है भाभीसा ?"

लालजीसा ! जिसने मनुष्य और उनके गुण स्वभाव बनाये है उसीने कर्तव्य , धर्म और न्याय भी बनाये है इनका सामना करने के लिए उसी ने पाप अधर्म और अन्याय की भी रचना की है ।धर्म की गति बहुत सूक्ष्म है लालजीसा ! बड़े बड़े मनीषी भी संशय में पड़ जाते है क्योंकि जो कर्म एक के लिए धर्म की परिधि में आता है , वही कर्म दूसरे के लिए अधर्म के घर जा बैठता है ।जैसे सन्यासी के लिए भिक्षाटन धर्म है, किन्तु गृहस्थ के लिए अधर्म ।ब्राह्मण के लिए याचना धर्म हो सकता है, किन्तु क्षत्रिय के लिए अधर्म ।ऐसे ही अपने स्वार्थवश किसी को मारना हत्या है और युद्ध में मारना धर्म सम्मत वीरता है ।समय के साथ नीति-धर्म बदलते रहते है।"

आगरा के पास हो रहे युद्ध से आये समाचार से पता लगा कि महाराणा सांगा एक विषबुझे बाण से मूर्छित हो गये है ।उन्हें जयपुर के पास किसी गाँव में चिकित्सा दी जाने लगी । उन्हें हठ था कि बाबर को जीते बिना मैं चित्तौड़ वापिस नहीं जाऊँगा और वह स्वस्थ होने लगे ।राजपूतों की वीरता देखकर बाबर भी एकबारगी सोच में पड़ गया ।पर किसी विश्वासघाती ने महाराणा को विष दे दिया । महाराणा के निधन से हिन्दुआ सूर्य अस्त हो गया । मेवाड़ की राजगद्दी पर कुँवर रत्नसिंह आसीन हुये ।

महाराणा सांगा की धर्मपत्नी धनाबाई के पुत्र थे रत्नसिंह और उनकी दूसरी पत्नी कर्मावती बाई के पुत्र थे- विक्रमादित्य और कुंवर उदयसिंह ।रानी कर्मावती की तरफ महाराणा का विशेष झुकाव था और उसने कुछ जागीरें अपने पुत्रों के नाम पहले से ही लिखवा ली थी और अब उसकी दृष्टि मेवाड़ की राजगद्धी पर थी ।

यह परिवारिक वैमनस्य रत्नसिंह के कोमल ह्रदय के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ ।और रत्नसिंह के साथ ही उनकी पत्नी पँवार जी सती हो गई ।इनके एक पुत्री थी श्याम कुँवर बाईसा जिसे अपनी बड़ी माँ मीरा से खूब स्नेह मिला ।

चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे कलियुग के अवतार राणा विक्रमादित्य । वह अविश्वासी और ओछे स्वभाव के थे जो सदा खिदमतगारों, कुटिल और मूर्ख लोगों से घिरे रहते । जिन विश्ववसनीय सामन्तों पर पूर्ण राज्य टिका था , उन्हें दूध की मक्खी की तरह बाहर निकाल दिया गया ।

राणा विक्रमादित्य ने एक दिन बड़ी बहन उदयकुँवर को बुला कहा," जीजा ! भाभी म्हाँरा को अर्ज़ कर दें कि नाचना-गाना हो तो महलों में ही करने की कृपा करें ।वहाँ मन्दिर में चौड़े चौगान , बाबाओं की भीड़ में अपने घाघरा फहराती हुई अपनी कला न दिखायें ।यह रीत इनके पीहर में होगी , हम सिसौदियों के यहाँ नहीं है ।"

उदयकुँवर बाईसा ने मीरा के पास आकर अपनी ओर से नमक मिर्च मिला कर सब बात कह दी - "पहले तो अन्नदाता और भाईसा आपको कुछ नहीं कहते थे पर भाभी म्हाँरा ! राणा जी यह सब न सहेगें ,वह तो आज बहुत क्रोध में थे ।सो देखिए आपका फर्ज़ है कि इन्हें प्रसन्न रखें ।और अबसे आप मन्दिर न पधारा करें ।"

इसका उत्तर मीरा ने तानपुरा उठाकर गाकर दिया ..........

🌿राणाजी मैं तो गोविंद के गुण गासूँ ।
राजा रूठै, नगरी राखै। 
हरि रूठयो कहाँ जासूँ ?
हरि मन्दिर में नृत्य करासूँ,
घुँघरिया धमकासूँ ॥
यह संसार बाढ़ का काँटा ,
जीया संगत नहीं जासूँ ।
मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर,
नित उठ दरसन पासूँ॥
राणाजी मैं तो गोविंद के गुण गासूँ ।🌿

क्रमशः ....................

|| मीरा चरित ||
(50)
क्रमशः से आगे.............

उदयकुँवर तो मीरा का भजन सुनकर और क्रोधित हो उठी - " अरे, राणाजी विक्रमादित्य बाव जी हुकम भोजराज नहीं है जो विष के घूँट भीतर ही भीतर पीकर सूख गये ।एकदिन भी आपने मेरे भाई को सुख से नहीं रहने दिया । जब से आपने इस घर में पाँव रखा है हमारे घराने की लाज के झंडे फहराती रही हो।अरे, अपने माँ बाप को ही कह देती कि किसी बाबा को ही ब्याह देते ।मेरे भीम और अर्जुन जैसे वीर भाई तो निश्वास छोड़ - छोड़ कर न मरते ।" फिर उदयकुँवर हाथ जोड़ कर बोली - " अब तो देखने को बस , ये दो भाई रह गये है ।आपके हाथ जोड़ूँ लक्ष्मी ! इन्हें दुखी न करो , अपने ताँगड़े तम्बूरे लेकर घर में बैठो , हमें मत राँधो ।"
मीरा ने धैर्य से सब आरोप सुने और किसी का भी उत्तर देना आवश्यक न समझा ।ब्लकि स्वयं की भजन में स्थिति और भक्ति में दृढ़ रहने के संकल्प को बताते हुये मीरा ने फिर तानपुरे पर उँगली फेरी..........

🌿बरजी मैं काहू की नाहिं रहूँ ।
सुण री सखी तुम चेतन होय के मन की बात कहूँ ॥
साधु संगति कर हरि सुख दलेऊँ जग सूँ दूर रहूँ।
तन मन मेरो सब ही जावौ भल मेरो सीस लहू॥
मन मेरो लागो सुमिरन सेती सब का बोल सहूँ।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी सतगुरू चरण गहूँ॥🌿

तुनक करके उदयकुँवर बाईसा चली गई ।राणाजी ने बहिन को समझाया "गिरधर गोपाल की मूर्ति ही क्यों न चुरा ली जाये ।सब अनर्थों की जड़ यही बला ही तो है ।"

दूसरे दिन सचमुच ही मीरा ने देखा कि ठाकुर जी का सिहांसन खाली पड़ा है तो उसका कलेजा ही बैठ गया । कहते हैं न - गिलहरी की दौड़ पीपल तक ! मीरा किसको कहे और क्या ? उसने तानपुरा उठाया और रूँधे कण्ठ से वाणी फूट पड़ी ......... 

🌿म्हाँरी सुध ज्यूँ जाणो त्यूँ लीजो ।
पल पल ऊभी पंथ निहारूँ दरसन म्हाँने दीजो।
मैं तो हूँ बहु औगुणवाली औगुण सब हर लीजो॥
मैं तो दासी चरणकँवल की मिल बिछड़न मत कीजो
मीरा के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणाँ चित दीजो॥
(ऊभी-अर्थात किसी की प्रतीक्षा में खड़े रहना )🌿

झर झर आँसूओं से मीरा के वस्त्र भीग रहे थे ।दासियाँ इधरउधर खड़ी आँसू बहाती विवशता से हाथ मल रही थी ।मीरा का गान न रूका ।एक के बाद एक विरह का पद मीरा गाती जा रही है - आँसूओं की तो मानों बाढ़ ही आ गई हो ।

तभी मिथुला ने उतावले स्वर में कहा - " बाईसा हुकम, बाईसा हुकम !"
मीरा की आकुल दृष्टि मिथुला की ओर उठी तो उसने सिंहासन की ओर संकेत किया ।उस ओर देखते ही हर्ष के मारे मीरा ने सिंहासन से उठाकर गिरधर के विग्रह को ह्रदय से लगा लिया ।आँसुओं से गिरधर को अभिषिक्त करती हुई कहने लगी-" मेरे नाथ ! मेरे स्वामी ! मुझ दुखिया के एकमात्र आधार !!! मुझे छोड़कर कहाँ चले गये थे आप ? रूँधे हुये कण्ठ से वह ठाकुर को उलाहना देते न थक रही थी......

🌿मैं तो थाँरे भजन भरोसे अविनासी ।
तीरथ बरत तो कुछ नहीं कीणो,
बन फिरे है उदासी॥
जंतर मंतर कुछ नहीं जाणूँ,
वेद पढ़ी नहीं कासी॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
भई चरण की दासी ॥🌿

क्रमशः ............ .....

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✍🏽 WhatsApp या Facebook पर मीरा चरित का यह जो प्रसंग आता है,  भाग 1 से लेकर भाग 123 तक, यह संक्षेप में है। जो मुख्य रूप से पुस्तक से लेकर लिखा गया है। लेकिन पुस्तक में और विस्तार से लिखा हुआ है और भी बहुत सारे प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे, जो कि बहुत ही रोचक है, भावुक कर देने वाला प्रसंग पुस्तक में आपको मिलेंगे। इसलिए निवेदन है कि मीरा चरित पुस्तक जरूर पढ़ें। और यदि आप  पुस्तक मंगवाना चाहते हैं तो आप इस पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।


श्री राधे...

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