मीरा चरित (भाग 27 से भाग 32 तक)

|| श्रीकृष्ण ||
|| मीरा चरित ॥ 
(27)
क्रमशः से आगे ..............

मीरा श्याम कुन्ज में अपने गिरधर के समक्ष बैठी उन्हें अश्रुसिक्त नेत्रों से निहोरा कर रही थी ।
" बाईसा ! बाईसा हुकम !" केसर दौड़ी हुई आयी । उसका मुख प्रसन्नता से खिला हुआ था ।" बाईसा जिन्होंने आपको गिरधरलाल बख्शे थे न, वे संत नगर मन्दिर में पधारे हैं ।" एक ही सांस में केसर ने सब बतलाया ।

" ठाकुर ने बड़ी कृपा की जो इस समय संत दर्शन का सुयोग बनाया ।" मीरा ने प्रसन्नतापूर्वक कहा ।" जा केसर उन्हें राजमन्दिर में बुला ला ! मैं तेरा अहसान मानूँगी ।"

" अहसान क्या बाईसा हुकम ! मैं तो आपकी चरण रज हूँ ।मैं तो अपने घर से आ रही थी तो वे मुझे रास्ते में मिले , उन्होंने मुझसे सब बात कहकर यह प्रसादी तुलसी दी और कहा कि मुझे एक बार मेरे ठाकुर जी के दर्शन करा दो । अपने ठाकुर जी का नाम लेते ही उनकी आँखों से आँसू बहने लगे ।बाईसा ! उनका नाम भी गिरधरदास है ।"

मीरा शीघ्रता से उठकर महल में भाई जयमल के पास गई और उनसे सारी बात कही ।" उन संत को आप कृपया कर श्याम कुन्ज ले पधारिये भाई ।"

" जीजा ! किसी को ज्ञात हुआ तो गज़ब हो जायेगा ।आजकल तो राजपुरोहित जी नगर के मन्दिर से ही आने वाले संतो का सत्कार कर विदा कर देते है ।सब कहते है , इन संत बाबाओं ने ही मीरा को बिगाड़ा है ।"

" म्हूँ आप रे पगाँ पड़ू भाई ।! मीरा रो पड़ी ।" भगवान आपरो भलो करेला।"

" आप पधारो जीजा ! मैं उन्हें लेकर आता हूँ ।किन्तु किसी को ज्ञात न हो ।पर जीजा , मैंने तो सुना है कि आप जीमण (खाना ) नहीं आरोगती ,आभूषण नहीं धारण नहीं करती ।ऐसे में मैं अगर साधु ले आऊँ और आप गाने - रोने लग गई तो सब मुझ पर ही बरस पड़ेगें ।"

" नहीं भाई ! मैं अभी जाकर अच्छे वस्त्र आभूषण पहन लेती हूँ ।और गिरधर का प्रसाद भी रखा है ।संत को जीमा कर मैं भी पा लूँगी ।और आप जो भी कहें , मैं करने को तैयार हूँ ।" 

" और कुछ नहीं जीजा! बस विवाह के सब रीति रिवाज़ सहज से कर लीजिएगा ।आपको पता है जीजा आपके किसी हठ की वज़ह से बात युद्ध तक भी पहुँच सकती है ।आपका विवाह और विदाई सब निर्विघ्न हो जाये- इसकी चिन्ता महल में सबको हो रही है ।"

" बहन - बेटी इतनी भारी होती है भाई ? मीरा ने भरे मन से कहा ।" 
" नहीं जीजा !" जयमल केवल इतना ही बोल पाये ।

"आप उन संत को ले आईये भाई ! मैं वचन देती हूँ कि ऐसा कुछ न करूँगी , जिससे मेरी मातृभूमि पर कोई संकट आये अथवा मेरे परिजनों का मुख नीचा हो ।आप सबकी प्रसन्नता पर मीरा न्यौछावर है ।बस अब तो आप संत दर्शन करा दीजिये भाई !""

गिरधरदास जी ने जब श्याम कुन्ज में प्रवेश किया तो वहाँ का दृश्य देखकर वे चित्रवत रह गये ।चार वर्ष की मीरा अब पन्द्रह वर्ष की होने वाली थी ।सुन्दर वस्त्र आभूषणो से सज्जित उसका रूप खिल उठा था ।सुन्दर साड़ी के अन्दर काले केशों की मोटी नागिन सी चोटी लटक रही थी ।अधरों पर मुस्कान और प्रेममद से छके नयनों में विलक्षण तेज़ था ।श्याम कुन्ज देवागंना जैसे उसके रूप से प्रभासित था ।गिरधर दास उसे देखकर ठाकुर जी के दर्शन करना भूल गये ।

संत को प्रणाम करने जैसे ही मीरा आगे बढ़ी, उसके नूपुरों की झंकार से वे सचेत हुये ।वर रूप में सजे गिरधर गोपाल के दर्शन कर उन्हें लगा - मानों वह वृन्दावन की किसी निभृत निकुन्ज में आ खड़े हुये है ।उन्हें देखकर जैसे एकाएक श्याम सुन्दर ने मूर्ति का रूप धारण कर लिया और कोई ब्रजवनिता अचकचाकर वैसे ही खड़ी रह गई हो ।उनकी आँखों में आँसू भर आये ।श्याम कुन्ज का वैभव और उस दिव्यांगना प्रेम पुजारिन को देख कर उन्होंने ठाकुर जी से कहा - 'इस रमते साधुके पास सूखे टिकड़ और प्रेमहीन ह्रदयकी सेवा ही तो मिलती थी तुम्हें ! अब यहां आपका सुख देखकर जी सुखी हुआ ।किन्तु लालजी ! इस प्रेम वैभव में इस दास को भुला मत देना ।'

अपने गिरधर के, ह्रदय नेत्र भर दर्शन कर लेने के पश्चात बाबा वस्त्र - खंड से आँसू पौंछते हुये बोले ," बेटी ! तुम्हारी प्रेम सेवा देख मन गदगद हुआ ।मैं तो प्रभु के आदेश से द्वारिका जा रहा हूँ ।यदि कभी द्वारिका आओगी तो भेंट होगी अन्यथा ......... ।लालजी के दर्शन की अभिलाषा थी, सो मन तृप्त हुआ ।"

" गिरधर गोपाल की बड़ी कृपा है महाराज ! आशीर्वाद दीजिये कि सदा ऐसी ही कृपा बनाए रखें ।ये मुझे मिले याँ न मिले , मैं इनसे मिली रहूँ ।आप बिराजे महाराज ! " उसने केसर से प्रसाद लाने को कहा और स्वयं तानपुरा लेकर गाने लगी ..........

🌿साँवरा...................
साँवरा, म्हाँरी प्रीत निभाज्यो जी ।

मीरा ने सदा की तरह गीत के माध्यम से अपने भाव गिरधर के समक्ष प्रस्तुत किये.......

🌿साँवरा म्हाँरी प्रीत निभाज्यो जी ।

🌿थें छो म्हाँरा गुण रा सागर,
औगण म्हाँरा मति जाज्यो जी ।
लोकन धीजै म्हाँरो मन न पतीजै
मुखड़ा रा सबद सुणाज्यो जी॥🌿

🌿म्हें तो दासी जनम जनम की,
म्हाँरे आँगण रमता आज्यो जी ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
बेड़ा पार लगाज्यो जी ॥🌿

भजन की मधुरता और प्रेम भरे भावों से गिरधरदास जी तन्मय हो गये ।कुछ देर बाद आँखें खोलकर उन्होंने सजल नेत्रों से मीरा की ओर देखा ।उसके सिर पर हाथ रखकर अन्तस्थल से मौन आशीर्वाद दिया ।केसर द्वारा लाया गया प्रसाद ग्रहण किया और चलने को प्रस्तुत हुये । जाने से पहले एक बार फिर मन भर कर अपने ठाकुर जी की छवि को अपने नेत्रों में भर लिया । प्रणाम करके वे बाहर आये ।
मीरा ने झुककर उनके चरणों में मस्तक रखा तो दो बूँद अश्रु संत के नेत्रों से निकल उसके मस्तक पर टपक पड़े ।

" अहा, संतों के दर्शन और सत्संग से कितनी शांति - सुख मिलता है ?यह मैं इन लोगों को कैसे समझाऊँ? 

वे कहते है कि हम भी तो प्रवचन सुनते ही है पर हमें तो कथा में रोना -हँसना कुछ भी नहीं आता ।अरे, कभी खाली होकर बैठें , तब तो कुछ ह्रदय में भीतर जायें ।बड़ी कृपा की प्रभु ! जो आपने संत दर्शन कराये ।
और जो हो, सो हो, जीवन जिस भी दिशा में मुड़े , बस आप अपने प्रियजनों - निजजनों - संतों - प्रेमियों का संग देना प्रभु ! 

उनके अनुभव ,उनके मुख से झरती तुम्हारे रूप, गुण , माधुरी की चर्चा प्राणों में फिर से जीने का उत्साह भर देती है, प्राणों में नई तरंग की हिल्लोर उठा देती है ।जगत के ताप से तप्त मन - प्राण तुम्हारी कथा से शीतल हो जाते है ।"

"मैं तो तुम्हारी हूँ ।तुम जैसा चाहो , वैसे ही रखो ।बस मैनें तो अपनी अभिलाषा आपके चरणों में अर्पण कर दी है ।"

क्रमशः ...........

|| मीरा चरित ॥ 
(28)
क्रमशः से आगे ..............

अक्षय तृतीया का प्रभात ।प्रातःकाल मीरा पलंग से सोकर उठी तो दासियाँ चकित रह गई ।उन्होंने दौड़ कर माँ वीरकुवंरी जी और पिता रत्नसिंह जी को सूचना दी ।उन्होंने आकर देखा कि मीरा विवाह के श्रंगार से सजी है ।

बाहों में खाँचो समेत दाँत का चंदरबायी का चूड़ला है ।
( विवाह के समय वर के यहाँ से वधू को पहनाने के लिए विशेष सोने के पानी से चित्रकारी किया गया चूड़ा जो कोहनी से ऊपर (खाँच) तक पहना जाता है ।)

गले में तमण्यों, ( ससुराल से आने वाला गले का मंगल आभूषण ), 
नाक में नथ, 
सिर पर रखड़ी (शिरोभूषण) , 
हाथों में रची मेंहदी , 
दाहिने हथेली में हस्तमिलाप का चिह्न और साड़ी के पल्लू में पीताम्बर का गठबंधन , 
चोटी में गूँथे फूल ,
कक्ष में फैली दिव्य सुगन्ध -मानों मीरा पलंग से नहीं विवाह के मण्डप से उठ रही हो ।

" यह क्या मीरा ! बारात तो आज आयेगी न ?" रत्नसिंह राणावत जी ने हड़बड़ाकर पूछा ।"

" आप सबको मुझे ब्याहने की बहुत रीझ थी न , आज पिछली रात मेरा विवाह हो गया ।" मीरा ने सिर नीचा किए पाँव के अगूँठे से धरा पर रेख खींचते हुये कहा - " प्रभु ने कृपा कर मझे अपना लिया भाभा हुकम ! मेरा हाथ थामकर उन्होंने मुझे भवसागर से पार कर दिया ।" कहते कहते उसकी आँखों से हर्ष के आँसू निकल पड़े ।

" ये गहने तो अमूल्य है मीरा ! कहाँ से आये ?" माँ ने घबरा कर पूछा ।
" पड़ले ( वर पक्ष से आने वाली सामग्री याँ वरी ) में आये है भाबू ! बहुत सी पोशाकें , श्रंगार ,मेवा और सामग्री भी है ।वे सब इधर रखे है ।आप देखकर सँभाल ले भाबू !" मीरा ने लजाते हुये धीरेधीरे कहा ।"

पोशाकें आभूषण देख सबकी आँखें फैल गई.......... ।जरी के वस्त्रों पर हीरे जवाहरत का जो काम किया गया था - वह अंधेरे में भी चमचमा रहा था ।वीरमदेव जी ने भी सुना तो वह भाईयों के साथ आये ।उन्होंने सब कुछ देखा ,समझा और आश्चर्य चकित हुये । वीरमदेव जी मीरा के आलौकिक प्रेम और उसके अटूट विश्वास को समझ कर मन ही मन विचार करने लगे  - " क्यों विवाह करके हम अपनी सुकुमार बेटी को दुख दे रहे है ? किन्तु अब तो घड़ियाँ घट रही है ।कुछ भी बस में नहीं रहा अब तो ।" वे निश्वास छोड़ बाहर चले गये ।

मीरा श्याम कुन्ज में जाकर नित्य की ठाकुर सेवा में लग गई ।माँ ने लाड़ लड़ाते हुये समझाया -" बेटी ! आज तो तेरा विवाह है ।चलकर सखियों ,काकियों भौजाईयों के बीच बैठ ! खाओ , खेलो , आज यह भजन -पूजन रहने दे ।"

" भाबू ! मैं अपने को अच्छे लगने वाला ही काम तो कर रही हूँ ।सबको एक से खेल नहीं अच्छे लगते ।आज यह पड़ला और मेरी हथेली का चिह्न देखकर भी आपको विश्वास नहीं हुआ तो सुनिए ........

🌿माई म्हाँने सुपना में परण्या🔺 गोपाल ।
राती पीली चूनर औढ़ी मेंहदी हाथ रसाल॥

🌿काँई कराँ और संग भावँर म्हाँने जग जंजाल ।
मीरा प्रभु गिरधर लाल सूँ करी सगाई हाल॥
🔺परण्या -परिणय अर्थात विवाह ।

" तूने तो मुझे कह दिया जग जंजाल है पर बेटा तुझे पता है कि तेरी तनिक सी -ना कितना अनर्थ कर देंगी मेड़ता में ? तलवारें म्यानों से बाहर निकल आयेंगी ।" माँ ने चिन्तित हो कहा ।

"आप चिन्ता न करे , माँ ! जब भी कोई रीति करनी हो मुझे बुला लीजिएगा , मैं आ जाऊँगी ।"

" वाह , मेरी लाड़ली ! तूने तो मेरा सब दुख ही हर लिया ।" कहती हुई प्रसन्न मन से माँ झाली जी चली गई ।

क्रमशः ...

|| मीरा चरित ॥ 
(29)
क्रमशः से आगे ..............

गोधूलि के समय बारात आई ।द्वार - पूजन तोरण-वन्दन हुआ ।चित्तौड़ से पधारे विशेष अतिथि और मेड़ताधीश बाहों में भरकर एक दूसरे से मिले और जनवासे में विराजे, नज़र न्यौछावर हुई ।

जब चित्तौड़ से आया मीरा के लिए पड़ला (वरी ) रनिवास पहुँचा तो सब चकित देखते से रह गये ।वस्त्रों के रंग , आभूषणों की गढ़ाई और गिनती ठीक उतनी की उतनी , वैसी की वैसी - जैसा सबने मीरा के कक्ष में सुबह देखा था , बस मूल्य और काम में ही दोनों में अन्तर दिखाई दे रहा था ।जब मीरा को वस्त्राभूषण धारण कराने का समय आया तो उसने कहा ," सब वैसा - का वैसा ही तो है भाभा हुकम ! जो पहने हूँ , वही रहने दीजिये न ।"

चित्तौड़ से आयी हुई पड़ले की सामग्री मीरा के दहेज में मिला दी गई ।मण्डप में अपने और भोजराज के बीच मीरा ने ठाकुर जी को ओढ़नी से निकाल विराजमान कर लिया ।ठौर कम पड़ी तो भोजराज थोड़ा परे सरक गये ।

भाँवर के समय बायें हाथ से गिरधरलाल को साथ ही मीरा ने पकड़े रखा ।
स्त्रियाँ अपनी ही धुन में गीत गाती ,आनन्द मनाते हुये बारम्बार जोड़ी की सराहना करने लगी -" जैसी सुशील , सुन्दर अपनी बेटी है , वैसा ही बल , बुद्धि और रूप - गुण की सीमा बींद है ।"

दूसरी ने कहा ," ऐसा जमाई मिलना सौभाग्य की बात है ।बड़े घर का बेटा होते हुये भी शील और सन्तोष तो देखो ।"
हीरे - मोतियों से जड़ा मौर, जरी का केसरिया साफा, बड़े -बड़े माणिक से मण्डित मोतियों के कुण्डल , बायीं ओर लटकती स्वर्णिम झालर की लड़ी और अजंनयुक्त विशाल नेत्र ।जब वे किसी कारण से तनिक सिर को इधरउधर घुमाते याँ बात करते तो सहस्त्रों दीपों के प्रकाश में उनके अलंकार अपना वैभव प्रकाश करने लगते ।

चित्तौड़ से आई प्रौढ़ दासियाँ वर वधू पर राई नौन उतारते हुये अपने राजकुवंर के गुणों का बखान करने लगी - " बल, बुद्धि तो इनका आभूषण ही है ।पर जब न्याय के आसन पर बैठते है तो बड़े बड़े लोग आश्चर्य चकित रह जाते है .....और जब........ ।"

भोजराज ने बाँया हाथ उठा करके पीछे खड़ी जीजी को बोलने से रोक दिया ।

विवाह सम्पन्न हुआ तो सबको प्रणाम के पश्चात दोनों को एक कक्ष में पधराया गया ।द्वार के पास निश्चिंत मन से खड़ी मीरा को देखकर भोजराज धीमे पदों से उनके सम्मुख आ खड़े हुये - " मुझे अपना वचन याद है ।आप चिन्ता न करें ।जगत और जीवन में मुझे सदा आप अपनी ढाल पायेंगी ।"

थोड़ा हँसकर वे पुनः बोले ," यह मुँह दिखाई का नेग , इसे कहाँ रखूँ ? " उन्होंने खीसे में से हार निकालकर हाथ में लेते हुये कहा ।

मीरा ने हाथ से झरोखे की ओर संकेत किया ।और सोचने लगी " एकलिंग (भगवान शिव जो चित्तौड़गढ़ में इष्टदेव है । ) के सेवक पर अविश्वास का कोई कारण तो नहीं दिखाई देता पर मेरे रक्षक कहीं चले तो नहीं गये है ।" मीरा ने आँचल के नीचे से गोपाल को निकालकर उसी झरोखे में विराजमान कर दिया ।

" हुकम हो तो चाकर भी इनकी चरण वन्दना कर ले ! " भोजराज ने कहा ।

मीरा ने मुस्कुरा कर स्वीकृति में माथा हिलाया ।

" एकलिंग नाथ ने बड़ी कृपा की ।चित्तौड़ के महल भी आपकी चरणरज से पवित्र होंगे ।शैव ( शिव भक्त ) सिसौदिया भी वैष्णवों के संग से पवित्रता का पाठ सीखेंगे ।" उन्होंने वह हार गिरधर गोपाल को धारण करा दिया ।" आपने मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया प्रभु ! मैं कृतार्थ हुआ ।इस अग्नि परीक्षा में साथ देना , मेरे वचन और अपने धन की रक्षा करना मेरे स्वामी ! " फिर मीरा की ओर मुस्कुराते हुये बोले ," यह घूँघट ?"

मीरा ने मुस्कुरा कर घूँघट उठा दिया ।वह अतुल रूपराशि देखकर भोजराज चकित रह गये , पर उन्होंने पलकें झुका ली ।

प्रातः कुंवर कलेवा पर पधारे तो स्त्रियों ने हँसी मज़ाक में प्रश्नों की बौछार कर दी । भोजराज ने धैर्य से सब प्रश्नों का उत्तर दिया ।

रत्नसिंह (भोजराज के छोटे भाई ) ने भोजराज और मीरा के बीच गिरधर को बैठा देखा तो धीरे से पूछा ," यह क्या टोटका है ?"

" टोटका नहीं , यह तुम्हारी भाभीसा के भगवान है ।" भोजराज ने हँस कर कहा ।
" भगवान तो मन्दिर में रहते है ।यहाँ क्यों ?"
" बींद (दूल्हा ) है तो बींदनी के पास ही तो बैठेंगे न! भोजराज मुस्कुराये ।
रत्नसिंह हँस पड़े ," पर भाई बींद आप है कि ये ?"
" बींद तो यही है ।मैं तो टोटका हूँ । धीरेधीरे तुम समझ जाओगे।" भोजराज ने धैर्य से कहा ।
"क्यों भाभीसा ! दादोसा क्या फरमा रहे है ?" रत्नसिंह ने मीरा से पूछा तो उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया ।

विदाई का दिन भी आ गया ।माँ ,काकी ने नारी धर्म की शिक्षा दी ।
पिता बेटी के गले लग रो पड़े ।वीरमदेव जी मीरा के सिर पर हाथ रख बोले ," तुम स्वयं समझदार हो, पितृ और पति दोनों कुलों का सम्मान बढ़े, बेटा वैसा व्यवहार करना ।"

फिर भोजराज की तरफ़ हाथ जोड़ वीरमदेव जी बोले ," हमारी बेटी में कोई अवगुण नहीं है , पर भक्ति के आवेश में इसे कुछ नहीं सूझता ।इसकी भलाई बुराई , इसकी लाज आपकी लाज है ।आप सब संभाल लीजिएगा ।"

भोजराज ने उन्हें आँखों से ही आश्वासन दिया ।

उसी समय रोती हुई माँ मीरा के पास आई और बोली ," बेटी तेरे दाता हुकम ( वीरमदेव जी )ने दहेज में कोई कसर नहीं रखी पर लाडो , कुछ और चाहिए तो बोल ......"

मीरा ने कहा............

🌿 दै री अब म्हाँको गिरधरलाल ।
प्यारे चरण की आन करति हाँ और न दे मणि लाल ॥

🌿नातो सगो परिवारो सारो म्हाँने लागे काल।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर छवि लखि भई निहाल ॥ 

क्रमशः .....

|| मीरा चरित ॥ 
(30 ) 
क्रमशः से आगे ..............

माँ ने मीरा से जब पूछा कि बेटी मायके से कुछ और चाहिए तो बता - तो मीरा ने कहा," बस माँ मेरे ठाकुर जी दे दो-मुझे और किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं है ।"

" ठाकुर जी को भले ही ले जा बेटा , पर उनके पीछे पगली होकर अपना कर्तव्य न भूल जाना ।देख, इतने गुणवान और भद्र पति मिले है ।सदा उनकी आज्ञा में रहकर ससुराल में सबकी सेवा करना " माँ ने कहा ।

बहनों ने मिल कर मीरा को पालकी में बिठाया ।मंगला ने सिंहासन सहित गिरधरलाल को उसके हाथ में दे दिया ।दहेज की बेशुमार सामग्री के साथ ठाकुर जी की भी पोशाकें और श्रंगार सब सेवा का ताम झाम भी साथ चला ।वस्त्राभूषण से लदी एक सौ एक दासियाँ साथ गई ।

बड़ी धूमधाम से बारात चित्तौड़ पहुँची । राजपथ की शोभा देखते ही बनती थी ।वाद्यों की मंगल ध्वनि में मीरा ने महल में प्रवेश किया ।सब रीति रिवाज़ सुन्दर ढंग से सहर्ष सम्पन्न हुये ।

देर सन्धया गये मीरा को उसके महल में पहुँचाया गया । मिथुला ,चम्पा की सहायता से उसने 
गिरधरलाल को एक कक्ष में पधराया ।भोग ,आरती करके शयन से पूर्व वह ठाकुर के लिए गाने लगी..........

🌿 होता जाजो राज म्हाँरे महलाँ,होता जाजो राज।
मैं औगुणी मेरा साहिब सौ गुणा,संत सँवारे काज।
मीरा के प्रभु मन्दिर पधारो,करके केसरिया साज। 🌿

मीरा के मधुर कण्ठ की मिठास सम्पूर्ण कक्ष में घुल गई ।भोजराज ने शयन कक्ष में साफा उतारकर रखा ही था कि मधुर रागिनी ने कानों को स्पर्श किया ।वे अभिमन्त्रित नाग से उस ओर चल दिये ।वहाँ पहुँचकर उनकी आँखें मीरा के मुख-कंज की भ्रमर हो अटकी ।भजन पूरा हुआ तो उन्हें चेत आया ।प्रभु को दूर से प्रणाम कर वह लौट आये ।

अगले दिन मीरा की मुँह दिखाई और कई रस्में हुईं ।पर मीरा सुबह से ही अपने ठाकुर जी की रागसेवा में लग जाती ।अवश्य ही अब इसमें भोजराज की परिचर्या एवं समय पर सासुओं की चरण - वन्दना भी समाहित हो गई ।नई दुल्हन के गाने की चर्चा महलों से निकल कर महाराणा के पास पहुँची ।

उनकी छोटी सास कर्मावती ने महाराणा से कहा," यों तो बीणनी से गाने को कहे तो कहती है मुझे नहीं आता और उस पीतल की मूर्ति के समक्ष बाबाओं की तरह गाती है ।"

" महाराणा ने कहा ," वह हमें नहीं तीनों लोकों के स्वामी को रिझाने के लिए नाचती - गाती है ।मैंने सुना है कि जब वह गाती है, तब आँखों से सहज ही आँसू बहने लगते है ।जी चाहता है , ऐसी प्रेममूर्ति के दर्शन मैं भी कर पाता ।"

" हम बहुत भाग्यशाली है जो हमें ऐसी बहू प्राप्त हुईं ।पर अगर ऐसी भक्ति ही करनी थी तो फिर विवाह क्यों किया ? बहू भक्ति करेगी तो महाराज कुमार का क्या ?

" युवराज चाहें तो एक क्या दस विवाह कर सकते है ।उन्हें क्या पत्नियों की कमी है ? पर इस सुख में क्या धरा है ? यदि कुमार में थोड़ी सी भी बुद्धि होगी तो वह बीनणी से शिक्षा ले अपना जीवन सुधार लेंगे ।" 

क्रमशः ..............

|| मीरा चरित ॥ 
(31 ) 
क्रमशः से आगे ..............

मीरा को चित्तौड़ में आये कुछ मास बीत गये ।गिरधर की रागसेवा नियमित चल रही है ।मीरा अपने कक्ष में बैठे गिरधरलाल की पोशाक पर मोती टाँक रही थी ।कुछ ही दूरी पर मसनद के सहारे भोजराज बैठे थे ।

"सुना है आपने योग की शिक्षा ली है ।ज्ञान और भक्ति दोनों ही आपके लिए सहज है ।यदि थोड़ी -बहुत शिक्षा सेवक भी प्राप्त हो तो यह जीवन सफल हो जाये ।"
भोजराज ने मीरा से कहा ।

ऐसा सुनकर मुस्कुरा कर भोजराज की तरफ देखती हुई मीरा बोली ,

" यह क्या फरमाते है आप ? चाकर तो मैं हूँ । प्रभु ने कृपा की कि आप मिले ।कोई दूसरा होता तो अब तक मीरा की चिता की राख भी नहीं रहती | चाकर आप और मैं , दोनों ही गिरधरलाल के है ।"

" भक्ति और योग में से कौन श्रेष्ठ है ?"भोजराज ने पूछा ।

" देखिये, दोनों ही अध्यात्म के स्वतन्त्र मार्ग है ।पर मुझे योग में ध्यान लगा कर परमानन्द प्राप्त करने से अधिक रूचिकर अपने प्राण-सखा की सेवा लगी ।"

" तो क्या भक्ति में ,सेवा में योग से अधिक आनन्द है?"

" यह तो अपनी रूचि की बात है ,अन्यथा सभी भक्त ही होते संसार में ।योगी ढूँढे भी न मिलते कहीं ।"

" मुझे एक बात अर्ज करनी थी आपसे " मीरा ने कहा ।
" एक क्यों , दस कहिये । भोजराज बोले ।

" आप जगत-व्यवहार और वंश चलाने के लिए दूसरा विवाह कर लीजिए।"

" बात तो सच है आपकी ,किन्तु सभी लोग सब काम नहीं कर सकते ।उस दिन श्याम कुन्ज में ही मेरी इच्छा आपके चरणों की चेरी बन गई थी ।आप छोड़िए इन बातों में क्या रखा है ?

यदि इनमें थोड़ा भी दम होता तो ............ " बात अधूरी छोड़ कर वे मीरा की ओर देख मुस्कुराये - " रूप और यौवन का यह कल्पवृक्ष चित्तौड़ के राजकुवंर को छोड़कर इस मूर्ति पर न्यौछावर नहीं होता और भोज शक्ति और इच्छा का दमन कर इन चरणों का चाकर बनने में अपना गौरव नहीं मानता ।जाने दीजिये - आप तो मेरे कल्याण का सोचिए ।लोग कहते है - ईश्वर निर्गुण निराकार है ।इन स्थूल आँखों से नहीं देखा जा सकता ,मात्र अनुभव किया जा सकता है ।सच क्या है , समझ नहीं पाया ।"

"वह निर्गुण निराकार भी है और सगुण साकार भी ।" मीरा ने गम्भीर स्वर में कहा - " निर्गुण रूप में वह आकाश , प्रकाश की भांति है -जो चेतन रूप से सृष्टि में व्याप्त है ।वह सदा एकरस है ।उसे अनुभव तो कर सकते है , पर देख नहीं सकते ।और ईश्वर सगुण साकार भी है ।यह मात्र प्रेम से बस में होता है, रूष्ट और तुष्ट भी होता है ।ह्रदय की पुकार भी सुनता है और दर्शन भी देता है ।" मीरा को एकाएक कहते कहते रोमांच हुआ ।

यह देख भोजराज थोड़े चकित हुए ।उन्होने कहा ," भगवान के बहुत नाम  - रूप सुने जाते है ।नाम - रूपों के इस विवरण में मनुष्य भटक नहीं जाता ?"

" भटकने वालों को बहानों की कमी नहीं रहती ।भटकाव से बचना हो तो सीधा उपाय है कि जो नाम - रूप स्वयं को अच्छा लगे , उसे पकड़ ले और छोड़े नहीं ।दूसरे नाम-रूप को भी सम्मान दें ।क्योंकि सभी ग्रंथ , सभी साम्प्रदाय उस एक ईश्वर तक ही पहुँचने का पथ सुझाते है ।मन में अगर दृढ़ विश्वास हो तो उपासना फल देती है ।"

क्रमशः ....

|| मीरा चरित || 
(32)
क्रमशः से आगे ............

अत्यन्त विनम्रता से भोजराज मीरा से भगवान के सगुण साकार स्वरूप की प्राप्ति के लिए जिज्ञासा कर रहे है । 

वह बोले ," तो आप कह रही है कि भगवान उपासना से प्राप्त होते है ।वह कैसे ? मैं समझा नहीं ?"
"उपासना मन की शुद्धि का साधन है ।संसार में जितने भी नियम है ; संयम , धर्म , व्रत , दान - सब के सब जन्म जन्मान्तरों से मन पर जमें हुये मैले संस्कारों को धोने के उपाय मात्र है ।एकबार वे धुल जायें तो फिर भगवान तो सामने वैसे ही है जैसे दर्पण के स्वच्छ होते ही अपना मुख उसमें दिखने लगता है ।" मीरा ने स्नेह से कहा," देखिए , भगवान को कहीं से आना थोड़े ही है जो उन्हें विलम्ब हो । भगवान न उपासना के वश में है और न दान धर्म के ।वे तो कृपा - साध्य है, प्रेम - साध्य है ।बस उन्हें अपना समझ कर उनके सम्मुख ह्रदय खोल दें ।अगर हम उनसे कोई लुकाव-छिपाव न करें तो भगवान से अधिक निकट कोई भी हमारे पास नहीं - और यदि यह नहीं है तो उनकी दूरी की कोई सीमा भी नहीं ।"

" पर मनुष्य के पास अपनी इन्द्रियों को छोड़ अनुभव का कोई अन्य उपाय तो है नहीं ,फिर जिसे देखा नहीं , जाना नहीं ,व्यवहार में बरता नहीं , उससे प्रेम कैसे सम्भव है ?"

" हमारे पास एक इन्द्रिय ऐसी है , जिसके द्वारा भगवान ह्रदय में साकार होते है ।और वह इन्द्रिय है कान ।बारम्बार उनके रूप-गुणों का वर्णन श्रवण करने से विश्वास होता है और वे हिय में प्रकाशित हो उठते है ।विग्रह की पूजा - भोग - राग करके हम अपनी साधना में उत्साह बढ़ा सकते है ।"

" पर बिना देखे प्रतीक (विग्रह) कैसे बनेगा ? क्या आपने कभी साक्षात दर्शन किए ?"

प्रश्न सुनकर मीरा की आँखें भर आई और गला रूँध गया ।घड़ी भर में अपने को संभाल कर बोली - " अब आपसे क्या छिपाऊँ ? यद्यपि यह बातें कहने - सुनने की नहीं होती ।मन से तो वह रूप पलक झपकने जितने समय भी ओझल नहीं होता , किन्तु अक्षय तृतीया के प्रभात से पूर्व मुझे स्वप्न आया कि प्रभु मेरे बींद( दूल्हा ) बनकर पधारे है, और देवता , द्वारिका वासी बारात में आये ।दोनों ओर चंवर डुलाये जा रहे थे ।वे सुसज्जित श्वेत अश्व पर जिसके केवल कान काले थे, पर विराजमान थे ।

यद्यपि मैंने आपके राजकरण अश्व के समान शुभलक्षण और सुन्दर अश्व नहीं देखा तथा आपके समान कोई सुन्दर नर नहीं दिखाई दिया पर.......पर....... उस रूप के सम्मुख ......कुछ भी नहीं ।"

मीरा बोलते बोलते रूक गई ।उनकी आँखें कृष्ण रूप माधुरी के स्मरण में स्थिर हो गई और देह जैसे कँपकँपा उठी ।

भोजराज मीरा का ऐसा प्रेम भाव देख स्तब्ध रह गये ।उन्होंने स्वयं का भाव समेट कर शीघ्रता से मिथुला को मीरा को संभालने के लिए पुकारा ।

क्रमशः .................


🙏🏼🌹 राधे राधे 🌹🙏🏼
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श्री राधे...

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